सुप्रीम कोर्ट ने देशभर की अदालतों को मंगलवार को आगाह किया है कि सामूहिक दुष्कर्म के दोषियों के प्रति कोई नरमी न बरतें।
शीर्ष अदालत ने साफ किया कि बलात्कार की शिकार महिला और अभियुक्तों के बीच समझौते को सजा कम करने का आधार नहीं बनाया जा सकता। अदालतें गैंगरेप जैसे वीभत्स अपराध के प्रति पूरी संवेदनशीलता दिखाएं।
चीफ जस्टिस पी सदाशिवम, जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई और जस्टिस रंजन गोगोई की पीठ ने हरियाणा के नारनौल जिले में 18 साल पहले हुए गैंगरेप के मामले में फैसला देते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (2) के प्रावधान के दुरुपयोग पर चिंता प्रकट की।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गैंगरेप में न्यूनतम सजा दस साल है। लेकिन धारा 376(2) के तहत अदालतों को विशेषाधिकार है कि वह खास परिस्थितियों के मद्देनजर दस साल से कम की सजा भी दे सकती हैं।
बलात्कार सिर्फ महिला से किया गया अपराध नहीं है। यह समूचे समाज को घृणित करने वाला संगीन अपराध है। इसी कारण संसद ने इस साल आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम पारित किया और गैंगरेप की न्यूनतम सजा बीस साल कर दी।
हालांकि मौजूदा मामला नए कानून के दायरे में नहीं आता। लेकिन अपराध और सजा के बीच संतुलन न्याय का महत्वपूर्ण पहलू है।
सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया कि सजा की अवधि निर्धारित करना एक पेचीदा काम है। अदालतें इस विषय पर हमेशा से दुविधा में रही हैं। लेकिन संगीन अपराधों के गुनहगारों के प्रति किसी तरह की हमदर्दी जताना ठीक नहीं है।
बलात्कार के अपराध को दोनों पक्षों के बीच समझौते के आधार पर निपटाया नहीं जा सकता। इस बात की अधिक संभावना रहती है कि बलात्कारी पीड़ित महिला पर दबाव डालकर उसे समझौते के लिए विवश करते हैं।
बलात्कार से आहत महिला लंबे समय तक सदमे में रहती है। इसके कारण मजबूर होकर भी दरिंदों के दबाव डालने पर समझौते के लिए अपनी सहमति प्रकट कर देती है।
क्या है मामला
ट्रायल कोर्ट और पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट से दस-दस साल की सजा पाए शिम्भू और बालू राम ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई थी। उन्होंने बलात्कार की शिकार महिला के साथ हुए समझौते के आधार पर सजा कम करने का आग्रह किया था।
समझौते में महिला ने कथित रूप से कहा था कि अब वह चार बच्चों की मां है। मुजरिम उसके समीप के गांव के ही हैं। लिहाजा जेल में काटी गई अवधि को सजा मानकर उन्हें छोड़ दिया जाए।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1995 में हुई वारदात तथा महिला का खुशहाल विवाहित जीवन सजा कम करने का कारण नहीं हो सकता।
मुजरिमों ने लंबा समय गुजरने के वाकये को विशेष परिस्थिति मानकर सजा कम करने का आग्रह किया जिसे किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता।