अजय माकन ने अपनी ही पार्टी के दो नेताओं के नई बयानबाजियों पर प्रतिक्रिया व्यक्त किया है। कांग्रेस प्रवक्ता राज बब्बर ने मुम्बई में बारह रुपये में भरपेट भोजन की उपलब्धता का जिक्र किया तो अगले ही दिन पार्टी सांसद राशिद मसूद ने दिल्ली में पेटभर भोजन की कीमत पांच रुपये बताकर सभी को चौंका दिया था। खाद्य सुरक्षा के नाम पर आम जन को बुद्धू बनाने के बाद यह नया मजाक है। कांग्रेस पार्टी के आला नेताओं ने इन बयानों से अपनी पोल खुलती देखकर इन दोनों नेताओं के बयान से पल्ला झाड़ लिया है। मीडिया सेल के अध्यक्ष अजय माकन ने इस मुद्दे पर बयान जारी किया है कि पार्टी का इन बयानों से कोइ लेना-देना नहीं है।
दूसरी ओर भाजपा सांसद चंदन मित्रा ने नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन से भारत रत्न वापस करने का बाल हठ सामने रखा था। सेन को नोबेल पुरस्कार प्राप्त होने के कुछ ही समय बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। चंदन मित्रा ने खुलकर अमर्त्य सेन के अर्थशास्त्र संबंधी अवधारणाओं का खंडन करते हुए यह भी कहा कि उनके विचार पुराने पड़ चुके हैं जिसे खारिज किये जाने की जरुरत है। मित्रा के बयान पर पलटवार करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा था कि यदि यही बात अटल बिहारी वाजपेयी कहेंगे तो वह भारत रत्न वापस कर देंगे। भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी और पार्टी प्रवक्ता निर्मला सीतारमण ने मित्रा के बयान से पार्टी का पल्ला झाड़ने की भरपूर कोशिश की है। इस बीच मोदीवादियों ने सोशल नेटवर्किंग साइटस पर सेन की बेटी नंदना सेन पर निशाना साधा है। इन साइटस पर बैठे पोषित अथवा गैरपोषित बयानवीरों का यह आचरण अभद्रता और अश्लीलता की पराकाष्ठा पर पहुंच गया है।
इन दोनों ही मसलों पर अनेक स्तरों पर लगातार विरोध हो रहा है। इन विरोधों के बावजूद गैरजिम्मेदारीपूर्ण वक्तव्यों के लिए दोषी नेताओं के विरुद्ध कार्रवाइ तो दूर उन पर अंकुश लगाने की भी कोइ कोशिश होती नहीं दीखती। कांग्रेस नेताओं का बयान अस्सी के दशक के बाजार भाव पर केन्द्रित है। पांच और बारह रुपये में भरपेट भोजन उन्हीं दिनों उपलब्ध था। संभव है कि राशिद मसूद और राज बब्बर आज भी इसी दर से भोजन की कीमत अदा करते हों। परंतु दोनों ही महानुभाव अपने बयान से पीछे हट गये हैं। यही हाल चंदन मित्रा का भी है। आखिर इस तरह की बयानबाजी का क्या आशय हो सकता है यह ध्यान देने का विषय है। दूसरी ओर इन बयानों से जुड़े असली मुद्दों पर कोइ चर्चा कहीं नहीं हुइ। न ही अमर्त्य सेन की टिप्पणियों में वर्णित आम जनता के दर्द की किसी ने परवाह की और न ही खाद्य समस्या से लड़ती भूखी जनता की समस्याओं की ओर ही गौर किया गया। साफ जाहिर है कि दोनों ही बड़ी पार्टी के राजनेता आवाम को बातों में उलझाने पर आमदा है। उन्हें असीम पीड़ा से जूझती देश की जनता से वास्तव में कोइ सरोकार ही नहीं है।
इस बीच शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने अमर्त्य सेन को राजनीति में टांग नहीं घुसाने की सलाह दे डाली है। उनकी बातों से साफ है कि राजनीति में आने के लिए पैतृक हक आवश्यक होता है न कि राजकाज से जुड़े मुद्दों की समझ। मराठी मानुष के प्रवक्ता ने समस्या और उसके निवारण पर कोइ चर्चा करने के बदले अमर्त्य सेन को राजनीति के अखाड़े में नये खिलाड़ी की तरह लिया है। इस मैदान के पुराने खिलाडि़यों में भय व्याप्त हो रहा है। यह देश और समाज की समस्याओं की ओर इंगित करने के हक से वंचित करने का प्रयास है। न केवल आमजन बलिक विशेषज्ञों को भी इस अधिकार से वंचित किया जा रहा है। उद्धव ठाकरे और चंदन मित्रा जैसे बयानवीरों को शायद इस बात का अंदाजा नहीं है कि उदारीकरण के युग में भारत जैसे विकासशील देशों की तीसरी दुनिया का राजनैतिक अर्थशास्त्र अमर्त्य सेन जैसे सुपोषित विशेषज्ञों ने ही संभाल रखा है।
देश की दोनों बड़ी पार्टियों के नेताओं की बयानबाजियां सुर्खियों में है। राजनेताओं के बयानों का सिलसिला यहीं तक नहीं है। लालू प्रसाद यादव, दिगिवजय सिंह और बेनी प्रसाद वर्मा जैसे नेता पहले से ही काफी ऊंचा मुकाम हसिल कर चुके हैं। यह खंडन-मंडन का दौर दिनोंदिन बढता जा रहा है। क्या यह खंडन-मंडन वास्तविक चुनावी तैयारियों का हिस्सा नहीं है? और यदि यह लोगों को भ्रमित कर असली मुद्दों से दूर करने का प्रयास नहीं है तो और क्या है? यह सचमुच खोज का विषय हो सकता है।
(कौशल किशोर ‘द होली गंगा’ पुस्तक के लेखक हैं)