नजरियासंपादकीय

शिवभूमि में सैलाब

kedarnath

लय और प्रलय, दोनों शिव के आधीन हैं। शिव का अर्थ ही सुंदर और कल्याणकारी, मंगल का मूल और अमंगल का उन्मूलन है। शिव के दो रूप हैं, सौम्य और रौद्र। जब शिव अपने सौम्य रूप में होते हैं, तो प्रकृति में लय बनी रहती है। इस प्रकृति में रहने वाले चराचर सम्यक जीवन निर्वाह करते हुए मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। पुराणों में शिव को पुरुष (ऊर्जा) और प्रकृति (स्त्री) का पर्याय माना गया है यानी पुुरुष और प्रकृति का सामयिक संतुलन ही आकाश, पदार्थ, ब्रह्मांड और ऊर्जा को नियंत्रित रखते हुए गतिमान बनाए रखता है। प्रकृति में जो कुछ भी है, आकाश, पाताल, पृथ्वी, अग्नि, वायु, सबमें सामियक संतुलन बनाए रखने का नाम ही शिव है। शिव खुद परस्पर विरोधी शक्तियों के बीच सामंजस्य बनाए रखने के सुंदरतम और प्राचीन प्रतीक हैं। शिव का जो प्रचलित रूप है, वह है, शीश पर चंद्रमा और गले में अत्यंत विषैला नाग। चंद्रमा आदिकाल से ही ऋषियों और कवियों के बीच शीतलता प्रदान करने वाला माना जाता रहा है, लेकिन नाग…? अपने विष की एक बूंद से किसी भी प्राणी के जीवन को मृत्यु की आग में झोंक देने वाला। कैसा अजीब सा संतुलन है इन दोनों के बीच। शिव अर्द्धनारीश्वर हैं, पुरुष और प्रकृति (स्त्री) का सम्मिलित रूप। वे अर्द्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं, काम पर विजय प्राप्त करने वाले और क्रोध की ज्वाला में काम को भस्म कर देने वाले। प्रकृति यानी उमा अर्थात् पार्वती उनकी पत्नी हैं, लेकिन हैं वीतरागी। गृहस्थ होते हुए भी श्मशान में रहते हैं। मतलब

काम और संयम का सम्यक संतुलन। भोग भी, विराग भी। शक्ति भी, विनयशीलता भी। आसक्ति इतनी कि पत्नी उमा के यज्ञवेदी में कूदकर जान दे देने पर उनके शव को लेकर शोक में तांडव करने लगते हैं शिव। विरक्ति इतनी कि पार्वती का शिव से विवाह की प्रेरणा पैदा करने के लिए प्रयत्नशील काम को भस्म करने के बाद वे पुन: ध्यानरत हो जाते हैं।
प्रकृति और पुरुष में असंतुलन का नाम रुद्र है। हालांकि वेदों में उन्हें रुद्र ही कहा गया है। वेदों के काफी बाद रचे गए पुराणों और उपनिषदों में रुद्र का ही नाम शिव हो गया है। प्रकृति में जहां कहीं भी मानव संतुलन से असंतुलन की ओर अग्रसर हुआ है, शिव ने रौद्र रूप धारण किया है। लय और प्रलय में संतुलन रखने वाले शिव की भूमि रुद्रप्रयाग, चमोली और उत्तरकाशी जैसे तीर्थ और पर्यटन स्थल पिछले दिनों आई प्राकृतिक आपदा के चलते कराह रहे हैं। बारिश और नदियों में आई बाढ़ के चलते जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। हजारों लोग असमय काल कवलित हो गए हैं। अरबों रुपये की संपत्ति तहस-नहस हो गई है। जिस तीर्थ और पर्यटन स्थलों के निर्माण और विकास में अरबों रुपये, कई दशक और लाखों मानवों का श्रम लगा, उसे प्रकृति की प्रलयकारी शक्तियों ने पल भर में धूल-धूसरित करके अपनी सत्ता को अक्षुण्ण रखा है। यह विनाश उन लोगों के लिए एक प्रकार से चुनौती है, जो लाभ कमाने के लिए प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ रहे हैं। कल तक जो शिव भूमि अपने स्वाभाविक लय में थी, आज वहां प्रलय के साक्षात दर्शन हो रहे हैं। नदियां रौद्र रूप धारण किए तांडव मचा रही हैं। जीवनदायिनी वर्षा जैसे वहां रहने वाले लोगों से अपना कोई पुराना प्रतिशोध लेने को आकुल-व्याकुल नजर आ रही है। उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा में केदारनाथ का प्राचीन मंदिर भले ही सुरक्षित बच गया हो, लेकिन उसके इर्द-गिर्द किया गया संपूर्ण विकास एक ही झटके में विनाश की गर्त में समा गया।

केदारनाथ धाम जाने पर रास्ते में लोक निर्माण विभाग उत्तराखंड की ओर से एक बोर्ड लगा है, ‘रौद्र रुद्र ब्रह्मांड प्रलयति, प्रलयति प्रलेयनाथ केदारनाथम्।’ इसका भावार्थ यह है कि जो रुद्र अपने रौद्र रूप से यानी अपना तीसरा नेत्र खोलकर पूरे ब्रह्मांड को भस्म कर देने की सामर्थ्य रखते हैं, वही भगवान रुद्र यहां केदारनाथ नाम से निवास करते हैं।
उत्तराखंड ही नहीं, पूरे हिमालय क्षेत्र में विकास की अजस्र गंगा बहाने का दावा करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि मैदानी क्षेत्र में जिस तरह कंक्रीट का महासागर रच कर उन्होंने प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़कर रख दिया है, ठीक वैसा ही हिमालय की छाती पर कंक्रीट का जंगल उगाने पर हिमालय चुपचाप सहन कर लेगा। वह क्षेत्र जो शिव यानी रुद्र का निवास स्थान हो, वह देव जो प्रकृति में सम्यक संतुलन का हिमायती रहा हो, वह हिमालयी क्षेत्र में पैदा किए जा रहे असंतुलन को सहर्ष स्वीकार कर लेगा? पिछले सप्ताह में हजारों लोगों का बलिदान देने, अरबों रुपये की संपत्ति का नुकसान सहने के बाद भी हम नहीं चेते, तो निकट भविष्य में इससे भी कुछ ज्यादा त्रासद स्थितियों का सामना करने को हमें तैयार रहना होगा। प्रकृति अब मानवीय हस्तक्षेप की उस सीमा रेखा पर आकर खड़ी हो गई है, जो अब उसकी बर्दाश्त से बाहर है। पिछले कुछ दशकों से हिमालय पर्वत और उसके आस-पास के क्षेत्रों में हर साल आने वाली प्राकृतिक आपदाओं को लेकर हमें बहुत पहले ही सतर्क और गंभीर हो जाना चाहिए था, लेकिन हम विकास और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में इतने रम गए कि हम प्रकृति के गंभीर से गंभीर संकेतों को समझने की भूल करते रहे।
पिछले कुछ दशक से देशी और विदेशी वैज्ञानिक, पर्यावरणविद् यह कहते चले आ रहे हैं कि दुनिया भर की पर्वत शृंखलाओं में हिमालय की प्रकृति कुछ भिन्न है। वह अन्य पर्वतों जैसी नहीं है। इतिहासकारों का तो यहां तक कहना है कि आज जहां हिमालय पर्वत है, वहां आज से लाखों साल पहले क्षिति सागर हुआ करता था और हिमालय पर्वत उस सागर

में समाया हुआ था। फिर कालांतर में क्षिति सागर में हुई भौतिक हलचलों के चलते सागर के गर्भ में छिपा बैठा हिमालय पर्वत ऊपर आ गया और उस सागर का पानी बहकर दक्षिण में चला गया। दक्षिण की बहुत-सी भूमि उस पानी में डूब गर्ई। पर्यावरणविदों ने कई बार चेतावनी दी है कि हिमालय क्षेत्र में लगातार बढ़ते हस्तक्षेप को सहन करने की स्थिति में हिमालय नहीं रह गया है। लगातार बढ़ती मानवीय गतिविधियों को हिमालय क्षेत्र बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। इन चेतावनियों के बावजूद हम नहीं संभले, हमारा हस्तक्षेप लगातार बढ़ता जा रहा है और उसी का नतीजा है पिछले हफ्ते ही नहीं, पिछले कई सालों से हिमालय क्षेत्र में होती आ रही प्राकृतिक आपदाएं।
आज पर्यटन और तीर्थाटन के नाम पर देशी और विदेशी लोग उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की ओर भागते चले जा रहे हैं। पर्यटन के नाम पर देशी-विदेशी मुद्रा जुटाने और उद्योग-धंधे लगाकर मुनाफा कमाने की होड़ में हमारी सरकारों ने हिमालय का भरपूर दोहन और शोषण किया है। पर्वतों का सीना काटकर चौड़ी-चौड़ी डामर की सड़कें बनाई गर्इं, पहाड़ी नदियों की प्रकृति और प्रवृत्ति समझे-बूझे बिना उनके किनारे पक्के भवन और होटलों का निर्माण किया गया। पहाड़ों और छोटी-छोटी पहाड़ियों को भू-स्खलन से रोकने वाले पेड़-पौधों को विकास के नाम पर काट-छांटकर पूरे हिमालय को नंगा कर दिया गया। यह सच है कि प्राचीनकाल से भारत में पर्यटन और तीर्थाटन की परंपरा रही है, लेकिन आज की पर्यटन और तीर्थाटन की परंपरा से बिल्कुल भिन्न रही है। यदि हम गौर करें, तो पाते हैं कि प्राचीनकाल में पर्यटन शिक्षा का एक माध्यम हुआ करता था। गुरुकुलों में पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं एक निश्चित समय तक अध्ययन करने के बाद पर्यटन पर निकलते थे, ताकि उन्होंने जो कुछ गुरुकुल में सैद्धांतिक रूप से पढ़ा है, उसको समाज में कैसे लागू करना है? सिद्धांत और वास्तविकता में कितना फर्क है? इसका वे स्वयं विवेचन कर सकें, इसके लिए पर्यटन जरूरी था। तीर्थाटन पर आम तौर पर तत्कालीन समाज में वे लोग निकलते थे, जो चौथेपन में पहुंच गए होते थे। ऐसे लोग तीर्थाटन पर निकलने से पहले अपना अंतिम संस्कार कर जाते थे, क्योंकि आवागमन की कठिन परिस्थितियों और उम्र के आखिरी पड़ाव पर होने के चलते वे यह मान लेते थे कि हो सकता है, रास्ते में उनकी मौत हो जाए। आमतौर पर 90 फीसदी लोगों की मौत हो भी जाती थी। तीर्थाटन उनके लिए लाभ-हानि का माध्यम नहीं था। जीवन भर परिवार और गांव के लिए खटने वाला व्यक्ति उम्र के आखिरी पड़ाव पर समाज के लिए जीने का संकल्प लेकर घर से
अशोक मिश्रनिकलता था और परिवार पर बोझ बनने के बजाय किसी अनजान शहर में गुमनाम मौत का शिकार हो जाता था।
आज तीर्थाटन और पर्यटन के अर्थ और उद्देश्य बदल गए हैं। तीर्थाटन और पर्यटन मौज-मेले का पर्याय बनकर रह गए हैं। लोग मैदानी भागों में पड़ने वाली गर्मियों से निजात पाने के लिए पहाड़ों की ओर भागते हैं। ऐसे लोगों को लुभाने के लिए पर्वतीय क्षेत्रों में बड़े-बड़े वातानुकूलित होटल्स, शॉपिंग मॉल्स, हवाई अड्डे और अन्य सुविधाओं का जाल बिछा दिया गया है। होटल, शॉपिंग मॉल आदि के निर्माण के लिए पर्वतों का सीना काटकर समतल किया गया। अबाध बहने वाली नदियों के किनारे कई तरह के प्रोजेक्ट शुरू किए गए, उनके अजस्र प्रवाह को बाधित कर लाभ कमाने के साधन पैदा किए गए। नतीजा यह हुआ कि वनाच्छादित पर्वत नंगे सिर, घायल छाती लिए सिसकते रहे और पूंजीपति वर्ग सरकारों के साथ मिलकर पर्वतों का दोहन करते रहे। इसका एक स्वाभाविक नतीजा यह हुआ कि साल भर शीतल रहने वाले पर्वत भी ग्लोबल वार्मिंग का शिकार होकर गर्माने लगे। अब तो पर्वतीय क्षेत्रों में भी तापमान 40-42 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने लगा है। वहां भी पर्यटकों को एसी कमरों की जरूरत पड़ने लगी है। कमरों और गाड़ियों में लगे एसी,वाहनों और हवाई जहाजों से निकलने वाले धुओं ने पर्वतीय क्षेत्र को प्रदूषित ही नहीं किया, बल्कि वहां की नदियों को दूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यही वजह है कि अब पहाड़ और पहाड़ी नदियां प्रतिरोध की मुद्रा में आ गई हैं। बादल, बारिश और नदियां मिलकर मानवीय कुकृत्यों का प्रतिरोध ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं के रूप में कर रही हैं। अब भी समय है, संभल जाने का। पर्वतीय क्षेत्रों को उनकी स्वाभाविक लय में जीने देने का, वरना प्रलय निश्चित है।

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