सरबजीत सिंह अकेले नहीं हैं जिनपर जासूसी का आरोप लगा है। पाकिस्तानी जेलों में अभी भी भारी संख्या में ऐसे भारतीय बंद हैं जिनसे जासूसी कराने के बाद भारत सरकार ने उन्हें भुला दिया है।
पिछले साल पाकिस्तानी जेल से छूटकर आए सुरजीत सिंह के मुताबिक वह स्वयं भारत सरकार द्वारा भेजे गए जासूस थे। जेम्स बांड जैसी फास्ट लाइफ, देशभक्ति की घुट्टी और मोटी सैलरी युवाओं को जासूसी की ओर खींचती है।
लेकिन यह कहानी सिर्फ फिल्मों तक ही सुहानी लगती है। असल जिंदगी में अपनी सरकार से बार-बार छले गए इन पर्दे के पीछे के बहादुरों की कहानी डरावनी है।
पाकिस्तान में भारत के लिए जासूसी करने वाले करामत रोही का कहना है कि भारत सरकार ने उन्हें नैपकिन की तरह यूज किया और काम हो जाने के बाद फेंक दिया।
बीस साल तक पाकिस्तान की जेल में बंद रहे भारतीय जासूस महबूब इलाही का तो पूरा शरीर ही जला दिया गया। वह खुशकिस्मत रहे कि जिंदा वतन वापस लौटने में कामयाब रहे।
तीन दशक बाद वतन लौटे सुरजीत ने खुलासा किया था कि वह पाक में भारत के लिए जासूसी करने जाते थे। सुरजीत सिंह के मुताबिक वह 85 बार पाकिस्तान गए।
जब भी वह पाकिस्तान जाते थे उसके ठीक दूसरे दिन लौट आते थे। उनका काम वहां की सेना की गोपनीय जानकारियां इकट्ठा करना था।
दिसंबर 1981 में सुरजीत सिंह वाघा के पास स्थित अपने गांव फिद्दा से आखिरी बार पाकिस्तान गए थे। लेकिन इस बार उनके ही साथी ने उन्हें धोखा दे दिया और पाकिस्तानी फौज ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
1984 में उन्हें पाकिस्तान में जासूसी के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। वह पिछले साल ही 31 साल की सजा काटने के बाद रिहा हुए लेकिन भारत सरकार ने कभी उनके जासूस होने की बात नहीं मानी।
उन्हें भारत सरकार की कोशिशों से नहीं बल्कि पाक सरकार की चूक से रिहाई मिली। 2012 में पहले सरबजीत को रिहा करने की घोषणा हुई थी लेकिन पाकिस्तान के कट्टरपंथी संगठनों की धमकी के बाद पाकिस्तान ने सफाई दी कि सरबजीत को नहीं सुरजीत को रिहा किया जाएगा।
भारत की प्रमुख जासूसी संस्था रॉ में काम करने वाले करामत रोही के मुताबिक उन्हें लगता है कि भारत सरकार ने उन्हें नैपकिन की तरह यूज कर फेंक दिया है।
वह 1988 में गिरफ्तार होने से पहले तक भारत के लिए पाकिस्तान में जासूसी करते थे। इस दौरान वह पांच बार पाकिस्तान गए।
उनका दावा है कि रॉ ने उन्हें जासूसी के लिए सिर्फ 1500 रुपये महीने दिए थे। करामत कहते हैं कि यह सिर्फ फिल्मों की बात नहीं है कि सिक्रेट सोल्जर को हमेशा भुला दिया जाता है।
वह 2005 में पाकिस्तान से रिहा हुए। करामत के मुताबिक उन्हें काम के दौरान भरोसा दिलाया जाता था कि वह देश की बहुत सेवा कर रहे हैं।
उन्हें भी ऐसा ही कुछ लगता था। भारत सरकार ने 2005 तक उन्हें पहचानने या अपना मानने से इंकार कर दिया था। वह कहते हैं अदालतों ने भी उनकी मदद नहीं की।
जब उन्होंने मुआवजे के लिए अपील की तो उन पर 25 हजार रुपये का जुर्माना लगाया गया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में अपील की लेकिन 18 महीनों में उनकी पहली सुनवाई का नंबर तक नहीं आया।
वह पंजाब के तत्कालीन सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह और तत्कालीन पाक राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ का शुक्रिया अदा करते हैं कि उन्होंने उन्हें जेल से रिहा किया। अब वह अपने जिले गुरदासपुर में ढाबा चलाते हैं।
गुरुदासपुर के रहने वाले गोपालदास ने जासूसी के आरोप में 27 वर्ष पाकिस्तानी जेलों में बिताए हैं। वह 1984 में पकड़े जाने से पहले सात सालों तक रॉ के साथ काम करते थे।
2011 में रिहा होने पर उनका हीरो की तरह स्वागत किया गया लेकिन रॉ ने उन्हें पहचानने से मना कर दिया। वे इससे आज भी दुखी हैं।
गोपाल दास बताते हैं कि विभाजन के बाद उन्होंने जासूसी शुरू की और उन्हें नहीं लगता कि उन्होंने कोई गलत काम किया।
सियालकोट कैंटोनमेंट में पाकिस्तानी सेना ने उनका कोर्ट मार्शल करते हुए 27 दिसंबर 1986 को मौत की सजा सुनाई थी लेकिन वह 2011 में पाकिस्तानी जेल से रिहा होकर भारत वापस आ गए। रॉ से 1500 रुपये मिलते थे जो पकड़े जाने के बाद से ही बंद हो गए। वापस आने के बाद शादी की और अब पत्नी के साथ शिमला में रहते हैं। घर चलाने के लिए अब टैक्सी चलाते हैं।
महबूब लगभग 20 साल तक पाकिस्तान की जेल में रहे। उन्हें 23 जून 1977 को गिरफ्तार किया गया और रिहाई एक दिसंबर 1996 को हुई।
वह बताते हैं कि 1968 में उन्हें ढाका भेजा गया। 1971 में बांग्लादेश युद्ध शुरू होने से दो महीने पहले उन्हें कराची जाने का आदेश मिला।
उनसे कहा गया कि वहां जाकर पाकिस्तानी सेना में भर्ती हो जाएं। वह पाकिस्तानी सेना की इंजीनियरिंग शाखा ईएमई में भर्ती हो गया।
उन्हें उर्दू बोलना और पढ़ना आता था। कायदे कानून भी पता थे। उन्होंने सेना में भर्ती होते समय बताया कि ढाका में उनके सारे कागजात नष्ट हो गए।
वह खत लाने ले जाने और फाइलों को संभालने का काम करते थे। इन सब कामों को करते हुए उन्हें खबरें भी मिलने लगीं।
खबर जुगाड़ने के बाद उन्हें काबुल के पास तोरखाम सीमा तक जाना पड़ता था। पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई को उनके चीन की सीमा पर काम करने के दौरान शक हुआ।लेकिन वह भाग निकले। 20 जून 1977 को पाकिस्तान गए तो उनके ही एक साथी ने उन्हें पकड़वा दिया। लगभग छह महीने तक उन्हें यातनाएं दी जाती रहीं।
1988 में पाकिस्तान में पकड़े गए बाबूराम अपनी जवानी में एक तगड़े नौजवान और पेशे से कथुआ जिले में पोस्टमैन थे।
18 साल पाकिस्तान की जेल में काटने के बाद वह 2006 में रिहा हुए।
बाबूराम कहते हैं कि उन्हें खुफिया एजेंसियों ने देश के लिए मिशन पर जाने का सपना दिखाया था।
बाबू राम के पास पहले से नौकरी थी इसलिए उन्हें देश के लिए काम करने का झांसा दिया गया। वह एक गाइड के तौर पर पाकिस्तान जाते और वहां के महत्वपूर्ण सैन्य ठिकानों की तस्वीरें लेकर आते। वह दो से तीन दिन के दौरे पर पाकिस्तान जाते थे और हर दौरे के उन्हें 1000 रुपये दिए जाते थे। एक बार पकड़े जाने पर खुफिया एजेंसियों ने उन्हें पहचानने या अपना मानने से मना कर दिया। बाबू राम को लगता है कि उन्हें पाकिस्तान के सामने एक चारे की तरह इस्तेमाल किया गया।