सुनामी के बाद समुद्र के अंदर आये बदलाव के कारण सीपों (ऑयस्टर) के जीवन पर संकट मंडराने लगा है.
सुनामी से हुए नुकसान के बारे में काफी कुछ छपा लेकिन पूरी दुनिया, मौसम और जनजीवन पर दीर्घकालिक असर डालने वाले समुद्र के अंदर के जीवनचक्र में हुए उथलपुल से दुनिया अभी तक अनभिज्ञ रही है. सुनामी के बाद समुद्र के अंदर आये बदलाव के कारण समुद्री जीवन चक्र में अहम भूमिका अदा करने वाले सीपों (ऑयस्टर) के जीवन पर संकट मंडराने लगा है.
अंडमान निकोबार द्वीप में सीपों के शोधकार्य में संलग्न डॉ अजय कुमार सोनकर ने बताया, ‘‘सुनामी के बाद समुद्र तल में जहां काफी बदलाव आये हैं वहीं जीवों के व्यवहार में भी परिवर्तन आया है. एक मछली जो तोता मछली के नाम से जानी जाती है, उसने अचानक सीपों को मारना शुरू कर दिया है.’’
एक दिन डॉ सोनकर ने पाया कि किसी परभक्षी द्वारा सीपों को मारा जा रहा है. उन्हें आश्चर्य हुआ कि अचानक कौन सा नया परभक्षी आ गया है जो सीपों के सख्त कवच को भेद देता है. इससे पहले कि वह किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाते तभी स्थानीय मछुआरों ने उन्हें अजीब सी बात बताई.
उन्होंने बताया कि उनकी मछली पकड़ने वाली डोंगी, जिसकी तलहटी पर बहुत सी सीपियां और अन्य समुद्री जीव चिपक जाते हैं और उन्हें हटाने के लिए समय समय पर समुद्र से डोंगी निकालकर कर तलहटी की सफाई करनी पड़ती है, जिनको किसी अंजान जीव ने पहले से साफ कर रखा था.
उन्होंने अपने पोषित जीवों (सीपों) के अज्ञात हमलावर को पकड़ने के लिए समुद्र के अंदर कैमरे लगवाये.
उन्होंने पाया कि पहले से सीपों के साथ रहती आ रही तोता मछली इसके लिए जिम्मेदार है. उनके लिए एक बड़ी जिज्ञासा का प्रश्न था कि तोता मछली के व्यवहार में अचानक इतना बड़ा परिवर्तन क्यों आया है.
डॉ सोनकर ने कहा, ‘‘मैंने जिज्ञासावश समुद्र तल में आये बदलावों की जानकारी लेने के लिए गोताखोरी की और पाया कि समुद्र की सतह में काफी परिवर्तन आया है. कुछ स्थान पर जमीन ऊपर चली गई है और कुछ जगह पर यह नीचे हो गयी है. इस बदलाव के कारण मूंगा और मूंगों के ढेर रेत से ढक गये हैं.
उन्होंने बताया, ‘‘मूंगों की पथरीले सतह पर जमा ‘एल्गी’ को तोता मछली खा लेती है और जो अनुपयोगी पदार्थ है, उसे पीसने के बाद सफेद बालू बना कर बाहर निकाल देती है जिसे ‘कैल्सिफरस सैंड’ बोला जाता है. मूंगों के रेत से ढंक जाने के बाद तोता मछली के सामने भोजन की समस्या उत्पन्न हुई और उसने विकल्प के बतौर आसानी से उपलब्ध सीपों को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया जिनके कवच पर भी उन्हें अपना भोजन ‘एल्गी’ प्राप्त होता है.’’
डॉ सोनकर ने कहा कि वास्तव में मूंगे समुद्र में खास वातावरण में पनपते हैं जिस वातावरण का निर्माण खास गहराई और प्रकाश संष्लेषण से होता है. सुनामी में नीचे का पानी तीव्रता से ऊपर आया और अपने साथ भीषण मात्रा में बालू नीचे से ऊपर ले आया जिसने मूंगों को नष्ट करके उन्हें ढंक दिया.
उन्होंने कहा कि यह दिलचस्प बात है कि समुद्र में इस सफेद बालू का निर्माण करने वाली यह तोता मछली ही हैं जो मूंगे की पथरीली परत को खाती हैं और उन्हें पीस कर बालू बनाती हैं. उन्होंने बताया कि एक तोता मछली वर्ष में 90 किलो बालू उत्पादन करती है.
भू विज्ञान मंत्रालय, भारत सरकार के तहत आने वाले विभाग ‘अंडमान निकोबार सेन्टर फॉर ओशन साइंस एंड टेक्नोलॉजी’ (एनकॉस्ट) में प्रभारी अधिकारी डॉ एन वी विनीत कुमार (वैज्ञानिक) ने कहा, ‘‘सुनामी के बाद उत्तरी अंडमान में समुद्री जमीन जहां उठ गई है वहीं दक्षिणी अंडमान में जमीन का तल नीचे चला गया है. कई स्थानों पर ‘मैनग्रो’ (समुद्र किनारे मिट्टी को पकड़े रखने वाली वनस्पतियां) मृतप्राय हो गये. मूंगे और मूंगे के ढेर नष्ट हो गये या रेत से ढंक गये. ऐसे में अलग-अलग गहराई पर समुद्र के अंदर पैदा होने वाली वनस्पतियां और उस पर आधारित जन जीवन प्रभावित हुआ है.’’
विनीत कुमार ने कहा कि जिन स्थानों पर मूंगों तक रोशनी ज्यादा पहुंचने लगी है वह मूंगे खराब (कोरल ब्लीचिंग) होने लगे हैं.
उन्होंने कहा कि मूंगों के नये संजाल के पूरी तरह बनने में लगभग 30 साल लगते हैं और तभी स्थितियां सामान्य होने की ओर लौटेंगी.
डॉ सोनकर ने कहा कि समुद्र तल में आये इन बदलावों के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं क्योंकि बहुमूल्य मोती बनाने वाली सीपों का जीवन खतरे में है.
इस सीप की एक जबर्दस्त खूबी यह भी है कि सीप अपने खाने की प्रक्रिया में पानी को फिल्टर करके उसे शुद्ध करता रहता है और एक दिन में लगभग 95 लीटर पानी को शुद्ध कर देता है जो कोरलों और अन्य समुद्री जीवों के फलने फूलने के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण करता है.
उल्लेखनीय है कि सीप पानी में ऑक्सीजन की कमी को दूर करता है, अतिरिक्त नाइट्रोजन को हटा देता है, हानिकारक प्रदूषण को पानी से दूर करता है यहां तक कि पानी से भारी धातुओं को हटा देता है और उसकी गंदगी को खत्म करता है जिससे समुद्र में ज्यादा गहराई तक सूर्य की रोशनी पहुंचती है और समुद्र में अलग-अलग जलस्तर पर प्रकाश संष्लेषण के माध्यम से अलग-अलग वनस्पतियां जन्म लेती हैं और जिनके कारण अलग-अलग गहराइयों पर रहने वाले जीव जीवित रहते हैं.
डॉ सोनकर ने कहा कि समुद्री जीवन के संतुलन को बरकरार रखने के लिए विदेशों में कोरल नर्सरी स्थापित की जाती हैं और कुछ इस तरह के प्रयास हमें भी अभी से करने होंगे. उन्होंने कहा कि अगर इस दिशा में युद्धस्तर पर प्रयास नहीं किये गये तो समुद्र के भीतर हो रहे बदलाव का मानव जीवन पर दीर्घकालिक गंभीर परिणाम हो सकता है.