ऐसे वक्त में, जब एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 75 फीसदी एमपी-एमएलए करोड़पति हैं, उनमें एक ऐसे मुख्यमंत्री भी हैं, जिनके पास अपनी कार तक नहीं है। वे मोबाइल भी नहीं रखते। 482 वर्ग फुट मकान के दो छोटे कमरों रहते हैं। यह मकान तब पूरा हुआ जब पत्नी सरकारी नौकरी से रिटायर हुईं और उन्हें सेवा लाभ मिला। वो हर महीने पार्टी से 5000 की सैलरी पाते हैं। यह किसी निम्न मध्यम वर्ग के संघर्षशील व्यक्ति की रिटायरमेंट के बाद की कहानी नहीं है।
हम यहां बात कर रहे हैं कि त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार की। पिछले दिनों विधानसभा के चुनाव परिणाम आए थे। यहां पर चौथी बार माणिक सरकार सत्ता में लौट आए हैं। 1998 से वे लगातार सत्ता में हैं। पूर्वोत्तर में बसा त्रिपुरा, देश का तीसरा सबसे छोटा प्रदेश है। इसका कुल क्षेत्रफल 10,491 वर्ग किमी का है। इसके उत्तर, दक्षिण और पश्चिम की सीमाएं बांग्लादेश से लगी हुई हैं। जबकि, पूर्व में यह प्रदेश असम और मिजोरम से जुड़ा है।
इस प्रदेश में जनजातियों का बाहुल्य है। आधी से ज्यादा आबादी आज भी कृषि से जुड़ी अर्थव्यवस्था से ही चल रही है। उद्योग के नाम पर आजादी के इतने वर्षों बाद भी यहां कोई बड़ा संस्थान नहीं है। महज एक ही राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच-44) से ही त्रिपुरा जुड़ा हुआ है। यहां के लोग बांस से बनाए जानी वाली तमाम कलात्मक वस्तुओं का निर्माण करते हैं। इनकी खपत दिल्ली और मुंबई महानगरों तक होती है।
किसी को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि मुख्यमंत्री के तौर पर भी वे अपनी कार में ‘लालबत्ती’ लगवाना तक पसंद नहीं करते। सुरक्षा के नाम पर उनके निवास में कोई ताम-झाम नहीं रहता। यहां तक कि अब उनके निवास में गेट तक नहीं है। जनता का आदमी जब चाहे तब माणिक दादा से मिल सकता है। वे तो जनता के ‘राजा’ हैं।
सरकारी कार का उपयोग अपने घरेलू काम के लिए कभी नहीं करते। राजधानी अगरतला में अपने घर के पास उन्हें देर शाम को फुटपाथ से सब्जी खरीदते देखा जा सकता है। उनके कंधे में सब्जियों का झोला लटका होता है। वे दो किमी तक पैदल ही जाना पसंद करते हैं। सुरक्षा के नाम पर कभी-कभी उनके पीछे दो होमगार्ड दिखाई पड़ जाते हैं। उनके हाथों में राइफलों की जगह डंडे होते हैं। अपनों के बीच माणिक सरकार को ‘माणिक दा’ कहा जाता है। कभी बार वे सब्जी लेते वक्त मोल-तोल करते भी देखे जाते हैं।
जाहिर है ऐसे में स्नातक स्तर तक पढ़ाई कर लेने के बाद माणिक सरकार का लक्ष्य एक साधारण नौकरी हासिल करके परिवार की रोजी-रोटी के जुगाड़ करने का ही था। लेकिन, 1967 में सीपीएम ने खाद्यान के मुद्दे पर एक बड़ा आंदोलन शरू किया था। इसका खास असर पूर्वोत्तर राज्यों में था। क्योंकि इस दौर में खाद्यान संकट के चलते त्रिपुरा सहित कई हिस्सों में बड़े पैमाने पर भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई थी। चूंकि, राजनीतिक रूप से इन छोटे प्रदेशों गुहार केंद्र की नींद नहीं तोड़ पाती थी, संकट बढ़ता जा रहा था। इस आंदोलन में माणिक सरकार भी कूद पड़े थे। इसी दौरान वे वामपंथी नेताओं के संपर्क में आए थे। धीरे-धीरे वे सीपीएम की राजनीति में ही रस-बस गए