उजाड़ रास्ते, अजीब मंज़र, वीरान गलियां, बाज़ार बुलंद हैं।
कहां की ख़ुशियां, शहर की गलियां, लहू, लहू हैं।’
क्वेटा में पिछले माह दहशतगर्दी की घटनाओं के विरोध में होने वाले एक धरने में बलूचिस्तान के छात्रों का राष्ट्र के नाम ये ख़त पढ़ा गया। इन पंक्तियों की गूंज पूरे मुल्क में फैल चुकी है।
सिर्फ़ चालीस दिनों के बीच बलूचिस्तान में लगभग दो सौ शिया हज़ारा के क़त्ल से देश भर में बेचैनी है।
अंग्रेज़ी अख़बार डेली टाइम्स के संपादक राशिद रहमान कहते हैं कि हज़ारा समुदाय के ख़िलाफ़ दहशतगर्दी के पीछे एक ख़ौफ़नाक मक़सद है।
आसान निशाना
वो कहते हैं, “इस अत्याचार की एक वजह तो ये है कि वो शिया हैं और जितने हमले हो रहे हैं वो सांप्रदायिक हैं। दूसरी ये कि कम संख्या में होने की वजह से हज़ारा समुदाय को आसानी ने निशाना बनाया जा सकता है।”
ह्यूमन राइट्स वॉच की हाल में आई रिपोर्ट के मुताबिक़ सिर्फ़ साल 2012 में ही सवा सौ से ज़्यादा शिया चरमपंथियों का निशाना बन चुके हैं।
केंद्रीय गृह मंत्री रहमान मलिक ने संसद में बयान में कहा कि बलूचिस्तान प्रशासन को कैरानी रोड धमाके की पूर्व सूचना दे दी गई थी। सवाल ये है कि उसके बाद भी इस हमले को क्यों नहीं रोका जा सका?
बीबीसी संवाददाता और लेखक मोहम्मद हनीफ़ के विचार में यही संवेदनहीनता ही पाकिस्तान का राष्ट्रीय गुण है।
वो कहते हैं, “मुझे लगता नहीं कि ये रोका जा सकता है। वजह ये है कि अगर सिर्फ़ एक संस्था का क़सूर होता तो और बात थी लेकिन सारी की सारी संस्थाएं और समुदायों में ये भावना है कि जो मारे जा रहे हैं उनका हमसे कोई ताल्लुक़ नहीं।”
लश्करे झंगवी
दस जनवरी को क्वेटा में हुए दो धमाकों में 115 लोगों की मौत हो गई। इनमें से ज़्यादातर हज़ारा शिया थे। एक माह से कम के अरसे में कैरानी रोड के धमाके में फिर 89 लोग मारे गए।
प्रतिबंधित संगठन लश्करे झंगवी ने दोनों घटनाओं की ज़िम्मेदारी क़बूल की है। लेकिन बहुत से लोग हैं जो हुकूमत की उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई से संतुष्ट नहीं है।
राशिद रहमान भी उन्हीं में से एक हैं। उनका कहना है, “जब वो ख़ुद ही ज़िम्मेदारी क़बूल कर रहे हैं, तो उन्हें और उनके नेताओं को पकड़ें। जब ये घटना हुई तो उनके ख़िलाफ़ कड़ी कर्रवाई हुई। इससे पहले सुरक्षा एजेंसियां क्या कर रही थीं?”
‘प्रशासन की कमज़ोरी’
पाकिस्तान उलमा काउंसिल के प्रमुख हाफ़िज़ ताहिर अशरफ़ी की नज़र में इसकी वजह प्रशासन की बुनियादी कमज़ोरियां हैं। उनके विचार में अगर न्याय व्यवस्था मज़बूत हो तो इस क़िस्म के दहशतगर्दी रोकी जा सकती है।
“मुजरिमों को फांसी दी जाए, क़ानून सर्वोच्च हो, अगर न्यायधीश अपनी टांगों में जान पैदा करें और क़ानून का पालन करने वाली एजेंसियों को अपना काम करने दिया जाए। जब हमारी व्यवस्था इतनी कमज़ोर होगी कि मुजरिम को उसके अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकेगा तो लोगों के हौसले टूट जाएंगे।”
ताहिर अशर्फ़ी ने बलूचिस्तान के हज़ारा शियाओं का मामला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया है।
मोहम्मद हनीफ़ के ख़्याल में बेहतर होगा कि पहले अपने घर में झांक लिया जाए। उनके विचार में नफ़रतों की ये जंग पाकिस्तान की अपनी है और उस हक़ीक़त से मुंह नहीं फेरा जा सकता है।
उनका कहना है, “ये उसी सिलसिले का हिस्सा है जिसके तहत शिया बिरादरी को निशाना बनाया जा रहा है। बुद्धिजीवी तमाम मामले को सितंबर 11 से जोड़ते हैं लेकिन वो भूल जाते हैं कि सिपाह सहाबा 1984 में बनी थी और उनका एक ही नारा है कि शिया काफ़िर हैं और हुकूमत उनको काफ़िर क़रार दे। जब सरकार ने ऐसा नहीं किया तो उनको चुन-चुन कर मार रहे हैं।”
नित नए नाम
मोहम्मद हनीफ़ का कहना है कि समाज में कट्टरपंथ बढ़ रहा है और इसके साथ चरमपंथी संस्थाओं का काम आसान हो रहा है।
वो कहते हैं, “बार-बार उनपर पाबंदियां लगाई जाती हैं लेकिन ये नाम बदलकर फिर अपना काम शुरू कर देते हैं। कई मोहल्लों में आपको ऐसी मस्जिदें मिल जाएंगी जहां काफ़िर-काफ़िर शिया काफ़िर के नारे उठते हैं। लोगों को इस तरह उकसाना जुर्म है। लेकिन मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूं कि कोई ऐसा थानेदार नहीं जो जाकर किसी मस्जिद में घुसकर ये बात कह सके या किसी जलसे को रोक सके।”