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कारगिल की शहादत भी भूल गई सरकारः चार कहानियां

14 बरस पहले करगिल की लड़ाई में भारत के जांबाज सैनिकों ने पाकिस्तानी घुसपैठियों के दांत खट‍्टे कर दिए थे। हालांकि करगिल की बर्फीली पहाड़ियों पर लड़ी गई इस जंग में देश के कई बहादुरों को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी थी।

आज करगिल विजय दिवस है और देश भर में शहीदों को श्रंद्घाजलि दी जा रही है। हालां‌कि उस जंग के कई ऐसे शहीद हैं, जिनके परिजन सरकार की उपेक्षा का शिकार हैं। उन पर न प्रशासन की नजर है और न सरकार के प्रति‌निधियों की।

करगिल दिवस पर शहीदों की जांबाजी और सरकार की उपेक्षा की ऐसी कुछ कहानियां हमने भी चुनी है, पढ़िए इन� कहानियों को-

कैलाश के कंधे में लगी थी चार गोलियां 
हल्द्वानी के आवास विकास निवासी लांस नायक कैलाश चंद्र भट्ट का कारगिल युद्ध में दुश्मनों की चार गोलियां लगने से घायल हुए थे। दुश्मनों की चार गोलियां उनके दाएं कंधे में लगी थीं।

15, कुमाऊं रेजीमेंट के लांस नायक कैलाश के मुताबिक 1999 के मई के पहले सप्ताह में कारगिल युद्ध शुरू हो गया था। 22 मई को उनकी बटालियन को सूचना मिली। तभी वह 30 बीएसएफ के जवानों के साथ लेफ्टिनेंट कर्नल एनबी राघवन के नेतृत्व में मच्छल सेक्टर से कारगिल के लिए रवाना हुए थे।

24 मई की रात कारगिल सेक्टर में दाखिल हुए। उनके तीन साथी एक-दूसरे को कंपनी देते आगे बढ़ रहे थे। एक साथी केवल चंद्र द्विवेदी उनके पीछे था। तभी दुश्मन की गोली केवल के गर्दन में लगी और वह वहीं शहीद हो गए।

इसी बीच, उनके दूसरे साथी ने उन्हें दुश्मन के निशाने से संभलने का इशारा किया। लेकिन दुश्मन को पता था कि चोटी के पीछे कोई छुपा है। जैसे ही उन्होंने चोटी से बाहर निकाल गर्दन घुमाई, दुश्मन ने एके 47 से गोलियां दाग दी। इससे चार गोलियां उनके कंधे में लगी थीं।

कैलाश चंद्र भट्ट के हौसले का भी जवाब नहीं है। कारगिल युद्ध में चार गोलियां लगने के बाद कैलाश सात माह तक श्रीनगर, दिल्ली के बाद लखनऊ बेस अस्पतालों में भर्ती रहे।

कंधे की वजह से कैलाश का दायां हाथ ऊपर नहीं उठता है। इसके बावजूद कैलाश ने जम्मू के मीरा साहिब में तीन साल तक सेना में नौकरी थी।

इसके बाद उन्हें आईएमबी ने अयोग्य घोषित कर दिया। वर्तमान में कैलाश पिछले साढ़े पांच साल से पूर्व सैनिक कल्याण आफिस में सेवा दे रहे हैं।�

बर्फीले तूफान में फंस गए थे गजपाल सिंह
हाथरस में सादाबाद की ग्राम पंचायत नौगांव के मजरा नगला चौधरी निवासी रामकिशन सूबेदार के पुत्र चौ.गजपाल सिंह ने भी कारगिल युद्ध में वीरता का परिचय देते हुए पाकिस्तानी फौज और आतंकियों से जमकर संघर्ष किया था।

उस समय अचानक बर्फीले तूफान में गजपाल सिंह सहित आधा दर्जन सैनिक फंस गए थे, जिसमें गजपाल का शव 45 दिन बाद मिला था।

हालां‌कि गजपाल के परिजनों की सुध प्रशासन ने नहीं ली। शहीद गजपाल के पिता भी सेना से 1997 में सूबेदार के पद से सेवानिवृत्त हुए थे।

रामकिशन ने विजय दिवस की पूर्व संध्या पर बताया कि सरकारी मशीनरी का यह हाल है कि थाने तहसील या अन्य सरकारी दफ्तरों में किसी भी कार्य के लिए जाएं तो कोई सुनवाई नहीं होती।

वह खुद भी 2 महीने से बीमार हैं और निजी अस्पताल में इलाज करा रहे हैं। रीढ़ की हड्डी का एक ऑपरेशन हो चुका है और दूसरा बाकी है। इसमें लाखों रुपये उन्हें खर्च करने पड़ रहे हैं।

बेटा गया तो आंखों की रोशनी चली गई
हाथरस की सादाबाद के गांव भूतिया निवासी 70 वर्षीय एवं दृष्टिहीन बाबूलाल का कहना है कि कारगिल युद्ध के दौरान जिस समय उन्हें अपने बेटे सत्यवीर के शहीद होने की सूचना मिली थी, तभी से उनकी आंखें सूख गईं और तब से लेकर आज तक आंखों की रोशनी नहीं लौटी है।

उन्होंने कहा कि सरकारी मशीनरी से उन्हें कभी कोई राहत नहीं मिली और न ही कोई अधिकारी उनकी सुनता है। एक वर्ष पहले तक तो उन्हें उनके पुत्र का वेतन मिलता रहा, लेकिन अब वह भी नहीं मिल रहा है।

केवल जो राज्य सरकार द्वारा पेंशन के रूप में 12,000 रुपये मिल रहे हैं। उन्होंने खुद के पैसे से ही अपने पुत्र की याद में शहीद स्मारक का निर्माण कराया था। वर्ष 1999 के बाद से लेकर पिछले 13 वर्षों में न किसी अधिकारी ने और न किसी नेता ने उनका हाल चाल जाना। �

नहीं लगते शहीदों की ‘चिताओं’ पर मेले 
हाथरस की हाजरा बेगम के पति जहूर खां ऑपरेशन रक्षक में 17 अक्तूबर, 2002 को शहीद हुए। उनकी पत्नी छह बच्चों की मां है।

जहूर खां की शहादत के वक्त तो बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुई, लेकिन उसके बाद कोई सरकारी इमदाद नहीं मिली।

जहूर खां का एक भाई रिक्शा चलाने को मजबूर है तो बच्चे भी जैसे-तैसे गुजर-बसर कर रहे हैं। महीनों अधिकारियों के कार्यालयों पर हाजरा बेगम ने चक्कर लगाए कि किसी लड़के को नौकरी मिल जाए।

कुछ सरकारी मदद मिल जाए, लेकिन कुछ भी नहीं मिला। और तो और मीतई में जहूर का स्मारक भी उनके परिजनों ने ही बनवाया। उस पर जो गेट आदि चढ़वाया, वह भी अपने पैसों के लगवाया।

शहीद का स्मारक खुले आसमान के नीचे है और उस पर कोई छत तक नहीं है। यही वेदना हसन अली की भाभी इम्तियाज बेगम की है। उनका कहना है कि किसी ने कोई वादा पूरा नहीं किया।

NCR Khabar News Desk

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