राजेश बैरागी । सपने देखना और उन्हें साकार करने का प्रयास करने में कुछ भी बुराई नहीं है बशर्ते कि संसाधनों और प्रतिबद्धता की कमी न हो। आंकड़ों की मानें तो देश के दस प्रतिशत लोग हमेशा भारतीय रेल में सवार रहते हैं।इन नागरिकों के जीवन की जिम्मेदारी किसकी है? हालांकि यह प्रश्न ही अनुचित है क्योंकि भारत में किसी भी नागरिक के जीवन की गारंटी का कोई प्रावधान नहीं है।
जहरीली अवैध शराब, दोपहर में छात्रों को बांटा जाने वाला अधोमानक मध्यान्ह भोजन,खुला और पैकेट बंद खाने का कोई भी सामान आपके जीवन पर भारी पड़ सकता है। परंतु सुरक्षित मानकर छोटी और लंबी यात्रा पर रवाना होने वाले नागरिकों के लिए भारतीय रेल कितनी सुरक्षित है?
2 जून को ओडिशा के बालासोर में हुए भयंकर रेल हादसे ने रेल सुरक्षा के दावों की चूलें हिला दी हैं। सरकार द्वारा यातायात के साधनों रेल, सड़क और वायुयान के क्षेत्र में किए जा रहे अंधाधुंध प्रयासों की सफलता उनके सुरक्षित होने से ही संभव है।
बालासोर में प्रधानमंत्री के साथ पहुंचे केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने पत्रकारों से कहा,-अच्छा होता कि भगवान ऐसा न चाहते।’ मुझे 20 अगस्त 1995 को फिरोजाबाद में हुए रेल हादसे का स्मरण है।उस दिन पुरुषोत्तम एक्सप्रेस खड़ी हुई कालिंदी एक्सप्रेस पर जा चढ़ी थी।उस हादसे में चार सौ लोगों की मौत हुई थी।सी के जाफर शरीफ रेल मंत्री थे और पी वी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री। प्रधानमंत्री चुप रहने के लिए विख्यात थे। विपक्षी भाजपा ने उस हादसे के लिए संसद नहीं चलने दी और प्रधानमंत्री के वक्तव्य की मांग की।चुप रहने वाले प्रधानमंत्री अंततः संसद के समक्ष पेश हुए और ‘यह एक मानवीय त्रुटि थी ‘ कहकर भाजपा की बोलती बंद कर दी।
यह यूरोप या अमेरिका नहीं है जहां इतने संक्षिप्त संदेश से इतनी बड़ी दुर्घटना को आसानी से परे ठेल दिया जाए। यह भारत है। यहां हर हादसे के बाद नागरिकों को भगवान भरोसे छोड़ने की मुकम्मल परंपरा है।