राजेश बैरागी । हालांकि इस प्रकार की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं अब अभूतपूर्व होने का तमगा खो चुकी हैं। परंतु पांच माह के पुत्र के शव को एक बैग में रखकर बस में दो सौ किलोमीटर की यात्रा करना एक पिता के लिए कैसा अनुभव रहा होगा? पिछले सप्ताह व्यवस्था की विफलताओं की दो सजीव कहानियां बांचने को मिलीं। महाराष्ट्र के पालघर जिला अंतर्गत ओसार वीरा गांव निवासी 21 वर्षीय आदिवासी महिला सोनाली वोघाट प्रसव पीड़ा होने पर पैदल ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की ओर चल पड़ी। यह लगभग साढ़े तीन किलोमीटर दूर था। वहां से औपचारिक चिकित्सा और झूठी सांत्वना लेकर वह प्रसव पीड़िता वापस लौट पड़ी।वह गर्भावस्था के नौवें महीने से गुजर रही थी। उसके पास सवारी का कोई साधन नहीं था। सरकार के पास भी उसके लिए कोई सवारी नहीं थी।दिन रात सेवा में समर्पित 108 नंबर की राष्ट्रीय एंबुलेंस सेवा भी वहां नहीं थी।लू भी चल रही थी और वह भी। घर पहुंचते पहुंचते उसकी स्थिति बिगड़ गई।उसे किसी उच्च चिकित्सा केंद्र ले जाया गया। रास्ते की लंबाई के समक्ष सांसों की डोर छोटी पड़ गई। उसके साथ उसके अजन्मे बच्चे ने भी दम तोड़ दिया।
उत्तरी दिनाजपुर (प.बंगाल) के कालियागंज निवासी आसीम देबसरमा एक बैग में अपने पांच माह के बच्चे का शव लेकर दो सौ किलोमीटर तक यात्रा करता रहा और किसी को कानों-कान खबर नहीं हुई। दरअसल उसने किसी को खबर होने नहीं दी। यदि पता चल जाता तो सहयात्री या बस स्टाफ उसे बस से उतार देते। फिर वह किस प्रकार अपने बच्चे के शव के साथ इतनी दूरी का सफर तय कर पाता।वह अपने दूधमुंहे बच्चे को इलाज कराने सिलीगुड़ी के नॉर्थ बंगाल मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में लाया था। उसके पास 16 हजार रुपए थे।न बच्चा बचा और न धन।वह एंबुलेंस से बच्चे के शव को ले जाना चाहता था। उसके लिए आठ हजार रुपए वह कहां से लाता। सरकार उसकी सहायता करने में विफल रही। उसने बैग में बच्चे के शव को रखा और बस में चुपचाप सवार हो गया। मीडिया से उसकी बातचीत के वीडियो को वहां के अधिकारी ने ट्वीट करते हुए लिखा,”यह दुर्भाग्य से ही सही, लेकिन ‘इगिये बंगाल'(उन्नत बंगाल) मॉडल की यह सच्ची तस्वीर है”। क्या यह घटनाएं हृदयविदारक हैं? इस प्रश्न पर विचार करते समय भूल जाइए कि कौन सा राज्य था और वहां किस राजनीतिक दल की सरकार है।