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मोदी -शाह का प्रयोग और आदित्यनाथ का योग : अमर आनंद

अमर आनंद । मोदी और शाह का प्रयोग हार गया है और आदित्यनाथ का योग जीत गया है। दक्षिण भारत के राज्य कर्नाटक का जनादेश उत्तर भारत के एक संन्यासी के राज मार्ग को और प्रशस्त कर रहा है। उसका कर्तव्य उसे लखनऊ के कालिदास मार्ग से दिल्ली के लोक कल्याण मार्ग की ओर ले जाता दिखाई पड़ रहा है। कर्नाटक में बीजेपी की हार का गम और यूपी के निकाय चुनाव में जीत का परचम यह मुनादी कर रहा है कि राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर चाय वाला के बाद सिर्फ गाय वाला ही आने वाला है। कर्नाटक की हार के बाद यह साफ दिख रहा है कि बीजेपी उतार पर है और पूरी कोशिश के बाद भी शाह समेत मोदी का जादू चल नहीं पाया। बीजेपी शासित राज्यों की संख्या कम होती जा रही है। हालांकि चुनावी सभा और रोड शो में भीड़ फिर भी मोदी की दीवानी नजर आई लेकिन जीत भारत जोड़ो यात्रा के यात्री राहुल गांधी के ‘ हाथ ‘ में और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ में चली गई।

जरा सोचिए जिन जमीनी मुद्दों को लेकर बीजेपी को कर्नाटक में सिमटाया गया वो मुद्दे राजस्थान और मध्य प्रदेश में हावी रहे तो क्या मोदी का मतलब मुमकिन रह पाएगा? राजस्थान में वसुंधरा का भरपूर उपयोग किए बिना क्या गहलोत को हराया जा सकता है? क्या शिवराज को किनारे कर सिंधिया को आगे बढ़ाने में एमपी का ताज वापस लाया जा सकता है? राजस्थान और एमपी में बीजेपी नेताओं की उठापटक, रोजी, रोटी, तालीम और सेहत के बुनियादी मुद्दे क्या बजरंग बली की जय बोलने से भूत पिशाच की तरह गायब हो जाएंगे? यकीनन राजस्थान में सचिन के विरोध के बावजूद मोदी के ‘ मित्र ‘ गहलोत अपने जादू से कमल को गायब करने की कोशिश करेगे और एमपी में कमल के लिए शिवराज और महाराज की टक्कर का लाभ कांग्रेस के कमलनाथ ले जाएंगे, जो इससे पहले भी राज्य को जीत कर दिखा चुके हैं। हालांकि एमपी में कुर्सी की लालसा में ‘ हाथ ‘ से छिटक कर आए महाराज यानी सिंधिया के अरमान इन दिनों आसमान पर हैं लेकिन उन्हें राज्य की कुर्सी के लिए जमीन पर अभी बहुत मेहनत करनी है।

हार को जीत में बदलने की कला में निपुण अमित शाह और उनके मोटा भाई मोदी के लिए 2024 से पहले ये मुश्किल वक्त है। गुजरात को जीत कर जो उनका आत्मविश्वास, दम और दबदबा मजबूत हुआ था वह कर्नाटक में कम हो गया। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि दोनों नेताओं ने मेहनत नहीं की। खास तौर से चुनावी अंदाज में आने पर मोदी तो ये भूल जाते हैं कि वह प्रधान मंत्री भी हैं। चुनाव मैदान में उनका लहजा घर के मुखिया की बजाय छोटी बहू वाला ज्यादा हो जाता है। जनता की तालियों के लिए वो विरोधियों की ओर से दी जाने वाली गालियों का भी सहारा लेते हैं।

कर्नाटक की चुनावी राजनीति बजरंग बली के इर्द गिर्द आ गई थी। बजरंग बली यानी हनुमान, अगर देखा जाए तो कर्नाटक के रण में मोदी के साथ खड़े उनके सबसे बड़े सिपहसलार अमित शाह को उनका हनुमान यानी बजरंग बली की भूमिका में ही माना जाता रहा है। लेकिन दिल्ली की कुर्सी के लिए यूपी से एक बड़ी जीत का आधार हासिल करने वाले वाराणसी के सांसद और रामभक्त मोदी अब संकट में है और ऐसे में सिर्फ योगी ही उनका साथ दे सकते हैं। उनके लिए हनुमान की भूमिका निभा सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा सीटें उनकी झोली में डाल सकते हैं। यह वही योगी है जो मोदी की नजर में बहुत उपयोगी हैं और वही योगी जो दिल्ली की कुर्सी तक न पहुंच जाएं इसके लिए मोदी और शाह अलग अलग तरीकों से लखनऊ में घेराबंदी करते भी नजर आते हैं लेकिन आज लखनऊ के राजभवन की उस तस्वीर को याद किया जाना चाहिए, जिसमें योगी के कंधे पर हाथ रखकर कुछ समझा रहे हैं और जो समझा रहे हैं वह शाह को छोड़कर सबको समझ में आ रहा है। शाह इस बात को समझ भी जाएं तो स्वीकार नहीं कर पाएंगे क्योंकि मोदी और उनके उत्तराधिकार पर वह किसी और नेता से ज्यादा खुद का अधिकार मानते हैं।

भारत की राजनीति उस मोड़ पर खड़ी है जहां विपक्षी एकता की तमाम कवायद के बावजूद मोदी से बड़ा नेता कोई नहीं है। न कर्नाटक में जीते राहुल गांधी और न ही विपक्षी एकता का राग अलाप रहे नीतीश कुमार और सुप्रीम कोर्ट के फैसले से संजीवनी पाए अरविंद केजरीवाल तो बिल्कुल भी नहीं। यह सच है कि देश में इस वक्त मोदी से बड़े कद और बड़ी पकड़ वाला नेता दूर – दूर तक कोई नहीं है। दुनिया भर में मोदी की वजह से भारत को दमदार माना जा रहा है लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मोदी ने बुनियादी मुद्दों के मामले में जनता को निराश नहीं किया है। जनता की निराशा बढ़ेगी तो बीजेपी की आशा कम होगी लेकिन बीजेपी की कम होती आशा और जनता की बढ़ती निराशा के बीच मुश्किल से ही सही, मोदी फिर से साथियों की मदद और तिकड़म से पीएम की कुर्सी तक पहुंच जाएंगे ऐसा लगता है, लेकिन इस कुर्सी पर पूरा कार्यकाल नहीं निभा पाएंगे। गाहे ब गाहे होने वाली चर्चा और कयास के मुताबिक 2025 यानी संघ के शताब्दी वर्ष समारोह के वर्ष या फिर 2027 यानी यूपी चुनाव के वक्त मोदी को कभी भी के बीच कभी भी दिल्ली की कुर्सी पर यूपी का वो शख्स बैठा हुआ दिखाई दे सकता है जिसके लिबास के रंग मोदी के लिबास के रंग की तरह नहीं बदलते। जो भगवा और भगवान के साथ – साथ अपनी जिद को भी जीता है। जो अंदर और बाहर के दमदार विरोध के बावजूद बुलंदी से खड़ा नजर आता है। कुछ संयोग होगा, कुछ प्रयोग होंगे और आदित्य नाथ का योग होगा। तब उत्तर गोरक्ष पीठ का वह संन्यासी, राम का वह राही, उत्तर प्रदेश का वह योगी देश के लिए भी उपयोगी नजर आएगा ऐसा माना जाना चाहिए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार है

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