इफ्तार से रफ्ता – रफ्ता रिश्तों को रफ्तार : अमर आनंद

अमर आनंद । लालू के परम मित्र और कभी कभार चरम शत्रु अब एक बार फिर उनके परिवार के पास आने लगे हैं। एक हफ्ते में इफ्तार के बहाने हुई दो मुलाकातों ने पटना की इस भीषण गर्मी में रिश्तों की गर्मजोशी की एक ने एक नई कहानी लिखी है। वक्त कथित जंगल राज और प्रचलित लेकिन तकरीबन गायब हो चुके सुशासन के पुरोधाओं को पास लाने लगा है। ऐसा लग रहा है। सरकारी आयोजन में अपने ही गृह क्षेत्र में जन विरोध का तमाचा झेलने वाले नीतीश एक धैर्यवान और विनम्र नेता हैं लेकिन भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं के बर्ताव ने उन्हें इस कदर तोड़ दिया है कि अब वो लालू परिवार से अपने पुराने रिश्ते जोड़ना चाहते हैं और लालू के तेजयुक्त लाल को अपने साथ देखना चाहते है। भाभी राबड़ी के घर पर पहुंच कर लालू परिवार से अपने पुराने रिश्तों में खाद पानी डालकर उसे फिर से पुष्पित – पल्लवित करना चाहते हैं।


नीतीश और तेजस्वी की दो मुलाकातों के बाद दोनों नेताओं के खेमे से प्रेम- भाव के संकेत मिलने लगे हैं। ऐसा लगने लगा है कि कभी भी बात आगे बढ़ सकती है।


यह वह दौर है जब नीतीश के बड़े भाई लालू यादव तेजस्वी को सीएम बनाने की तमाम कोशिशें करने के बाद फिर से जेल में जा चुके है। 1990 में बिहार में सियासी बदलाव के वाहक जंगल राज के लिए आलोचना झेलने वाले लालू यादव आज लुप्त हो चुके सुशासन वाले बिहार में बेटे तेजस्वी को उस जगह पर देखने का ख्वाब रखते हैं जहां वो खुद रह चुके हैं। पार्टी की कमान तो तेजस्वी को मिल चुकी है। सत्ता की कमान मिलनी बाकी है। तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनना है और नीतीश मुख्यमंत्री पद से ऊब चुके हैं। अब दोनों की परस्थितिजन्य नजदीकियां क्या एक दूसरे की उम्मीदों पर खरे उतर पाएंगी, यह एक बड़ा सवाल है।


दरअसल त्रिकोणीय राजनीति वाले बिहार में नीतीश को लालू को पराजित करने के लिए बीजेपी का और बीजेपी को पराजित करने के लिए लालू का साथ लेना पड़ता रहा है और नीतीश वक्त की नजाकत के हिसाब से यह सोचते हैं कि कब, किसका साथ लेना है और किसके खिलाफ होना है। ऐसा वह अतीत में कर भी चुके है। लालू का साथ लेकर मोदी को खरी – खोटी सुना चुके है और मोदी का साथ लेकर लालू को। सियासत में अवसर और जरूरत की बड़ी अहमियत होती है। उसी से यह तय होता है किसके कितना करीब और किस्से कितनी दूर जाना है। सपूर्ण क्रांति के समय से राजनीति में सक्रिय नीतीश और उनके बड़े भाई लालू इस विधा के पारंगत रहे हैं।


हाल ही में योगी के शपथ ग्रहण समारोह में मोदी के सामने नीतीश की प्रणाम मुद्रा को लेकर सवाल उठते रहे लेकिन इससे ज्यादा सवाल विधान सभा अध्यक्ष विजय कुमार सिन्हा ने सदन में नीतीश की सरकार पर उठाए थे जिससे उनका पारा हाई हो गया था। शराबबंदी, अपराध और न जाने कितने ऐसे मुद्दे हैं जिसमें विपक्ष से ज्यादा सता पक्ष का हिस्सा सहयोगी बीजेपी ने नीतीश को असहज किया है। केंद्र और राज्य की सत्ता में विराजमान बीजेपी के नेताओं की उपेक्षा, विरोध और नजर अंदाज करने की अदा ने नीतीश को कई बार विचलित किया है। गठबंधन के अपने साथी दल को नुकसान पहुंचाने के लिए जानी जाने वाली वाली बीजेपी के साथ नीतीश का रिश्ता सहज नहीं है, ऐसा साफ नजर आता है। कभी चर्चा यह भी होती है कि नीतीश को बीजेपी के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ सकती है और उन्हें उपराष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव केंद्र की ओर दिया जा सकता है लेकिन बाद में नए नामों पर चर्चा होने से उनका नाम पीछे रह जाता है।

नीतीश कुमार 2014 के पहले मोदी के कद के नेता माने जाते रहे हैं। मोदी के गुजरात में मुख्यमंत्री रहते कभी केंद्र तो कभी राज्य की सत्ता में विराजमान रहे हैं लेकिन अब उनके कद में उतना ही फासला हो गया है जितना केंद्र और बिहार में। कभी डीएनए पर मोदी से आरपार करने वाले नीतीश के लिए अब मोदी या तो बेहद ज़रूरी हो गए हैं या उनके लिए मोदी का साथ छोड़ कर आगे बढ़ना बेहद जरूरी हो गया है। बिहार की राजनीति की थोड़ी अलग किस्म की है यहां मुस्लिम टोपी से नफरत करने वाले मोदी की पार्टी के ही बिहारी मोदी को रफ्तार में मुस्लिम टोपी पहननी पड़ती है और मुस्लिम टोपी के जरिए ही रिश्तों को रफ्ता – रफ्ता रफ्तार मिलने लगती है। ताजगी भरो ताजा सियासी मुलाकातों से पटना से दिल्ली तक हलचल है। कुछ दिख रहा है और कुछ छुपा हुआ है लेकिन जो भी है सब सामने आने वाला है।

(लेखक अखबार और टीवी के वरिष्ठ पत्रकार हैं)