आज़ादी के चौहत्तर वर्ष, क्या भूलूं क्या याद करूं : के के अस्थाना

के के अस्थाना । पिछले चौहत्तर वर्षों में हमने बड़ा लम्बा सफ़र तय किया है. आजादी के पहले सूर्योदय के बाद से इस देश में सत्ताईस हजार अट्ठाईस बार सूर्य उदय हो चुका है. चौहत्तर जाड़े, चौहत्तर गर्मी और चौहत्तर बरसातें हम पीछे छोड़ आये हैं. अपने महान देश के हज़ारों साल पुराने इतिहास में हमने चौहत्तर साल का इतिहास और जोड़ लिया है. यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है. अर्थात यह एक बड़ी उपलब्धि है.
कुछ अधिक पढ़े लिखे लोगों का मानना है कि पंद्रह अगस्त सन् सैंतालिस के दिन भारत नाम के राष्ट्र राज्य का जन्म हुआ था. उनके हिसाब से उसके पहले भारत नाम का कोई देश नहीं था. छोटे छोटे रजवाड़ों का झुण्ड था. अंग्रेजों ने इस पर कब्जा करके बड़ा अहसान किया और इसे एक करके भारत बना दिया! कुछ कम पढ़े लिखे लोग यह बात मानने को तैयार ही नहीं हैं. उन्हें लगता है कि भारत तो बहुत पहले से है.

इस नए जन्म लेने वाले देश का नाम भारत रखेंगे यह बात अंग्रेजों ने बहुत पहले तय कर ली थी, इसीलिए अपनी कंपनी का नाम इसी काल्पनिक देश के नाम पर ‘ईस्ट इंडिया कम्पनी’ रख लिया था. वास्को डि गामा को भी सपना आया था कि एक दिन अंग्रेज इंडिया दैट इज भारत नाम का राष्ट्र बनायेंगे. तो उसने सोचा चलो उसके समुद्री मार्ग की खोज कर ली जाए. अंग्रेजों को आने जाने में आसानी हो जायेगी. खैर ! जो भी है, हम पैदा हुए या स्वतंत्र हुए, पर उस दिन जो भी हुआ उसे हम कहते स्वतंत्रता ही हैं. और तब से खुद को स्वतंत्र मानते चले आ रहे हैं.

देश की इस आज़ादी के बाद सबसे पहले जो काम हुआ, वह था संविधान का निर्माण. इसके बाद दूसरा काम था संविधान में संशोधन !! तब से लेकर आज तक इसमें संशोधनों का दौर जारी है. बताते हैं कि हमारा संविधान एक आदर्श संविधान है. इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि यह लचीला है. इसमें संशोधनों की अपार संभवानाएं हैं. इन संभावनाओं का भरपूर उपयोग किया भी गया. अभी तक इसमें एक सौ सत्ताईस संशोधन हो चुके हैं. हमारे शुरू के संविधान निर्माता इसमें ‘सेकुलर’ शब्द लिखना भूल गए थे. वह काफी बाद में, बयालीसवें संशोधन के जरिये सन् छिहत्तर में जोड़ा गया. हालांकि उस समय देश में गैर संवैधानिक आपातकाल चल रहा था. पर अपने लचीले संविधान ने यह संशोधन भी स्वीकार कर लिया.

स्वतंत्रता के बाद हमने बहुत प्रगति की है. हमने जब शुरुआत की उस समय तक हमारे पास एक भी प्रधान मंत्री नहीं था. एक अदद गवर्नर जनरल से काम चलाते थे. आज हमारे पास जीवित अवस्था में कई भूतपूर्व, एक वर्तमान और असंख्य भावी प्रधानमंत्री हैं. लोकतंत्र की जड़ें अब काफी गहरी हो चुकी हैं. शुरू शुरू में एक आम चुनाव के बाद एक ही प्रधानमंत्री बन पाता था. फिर बीच में एक दौर ऐसा भी आया जब एक चुनाव के बाद चार पांच लोगों को बारी बारी प्रधानमन्त्री बनने का मौका मिल जाता था. सबसे कम समय तक प्रधानमंत्री बनने का कीर्तिमान चालीस दिन का है.

वह परम्परा बंद होने से प्रधानमंत्री पद के कई दावेदार बड़े परेशान रहते हैं. यह भी कोई लोकतंत्र हुआ कि जो प्रधानमंत्री बन गया वह पांच साल तक प्रधानमंत्री बना रहे. पांच साल तक बना रहे तो भी गनीमत है. दुबारा फिर चुनाव जीते और फिर प्रधानमंत्री बन जाए. यह लोकतंत्र कहाँ रहा, यह तो डिक्टेटरशिप हो गई. ई ना चोलबे ! लोहिया जी ने कहा था कि जिन्दा कौमें पांच साल इन्तजार नहीं करतीं. सारे विपक्षी मिल कर खुद को ज़िंदा कौम साबित करने में जुटे रहते हैं.

सामाजिक न्याय के पक्षधरों ने अपने अपने क्षेत्र और अपनी अपनी जाति के साथ काफी सामाजिक न्याय किया है. पहले सवर्णों द्वारा दलितों का शोषण किया जाता था. अब दलित इस मामले में स्वावलंबी व सक्षम हो गए हैं. हालाँकि किसी ने ऐसा सोचा नहीं था, पर आरक्षण और सेकुलरिज्म अपने लोकतंत्र के दो बड़े स्तंभों के रूप में स्थापित हो चुके हैं. यह हमारे परमानेंट मुद्दे हैं. इतिहास गवाह है कि जब जब मुद्दों की कमी आई है, तब तब इन्ही दोनों मुद्दों ने डूबने वालों की नाव पार लगाई है. इस मामले में देश की सभी पार्टियाँ एक मत हैं.

पिछले चौहत्तर सालों में विश्व में बड़ी उथल पुथल रही है. जाने कितने देश टूट गए. कितने शासनाध्यक्षों की हत्या हो गई. एक से एक धनी देशों में उच्च स्थानों पर भ्रष्टाचार के असंख्य मामले सामने आये. हम भी किसी से पीछे नहीं रहे. हमारे यहाँ भी आये. पर हम पाक साफ़ लोग ठहरे. एकाध प्रदेश स्तर के मुख्यमंत्री को छोड़ दें, तो आज तक राष्ट्रीय स्तर का एक भी भ्रष्टाचार का मामला सिद्ध नहीं हो पाया. किसी को सजा नहीं हुई. यह हमारे देश को और हमारे रहनुमाओं को बदनाम करने की साजिशें थीं, जो कि हमेशा नाकाम रही.

सत्ता का हस्तांतरण भी अपने यहाँ हमेशा शांतिपूर्ण रहा. चाहे कुर्सी के नीचे से कालीन खींच कर किसी को गिराया गया हो, या चुनाव में हरा कर. चाहे वह गरीब किसान प्रधान मंत्री से आधी दाढ़ी वाले, इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर से उठकर आये बुद्धिजीवी प्रधानमंत्री को हुआ हो या चारा के कारण बेचारा हुए मुख्यमंत्री द्वारा अपनी अर्धांगिनी को सत्ता सौंपा जाना रहा हो. सब कुछ बड़े सौहार्दपूर्ण ढंग से हुआ. मिल बैठ कर बात हो गई.

इधर यह मिल बैठ कर बात करना कुछ कम हुआ है. मिल बैठ कर बात करने की जगह कुछ दल मेज पर चढ़ कर बात करने लगे हैं. आपस में बात करते करते संसद के मार्शलों से मार्शलों वाली भाषा में बात करने लगते हैं. कुछ लोगों का मानना है कि यह शुभ संकेत नहीं है.

जन प्रतिनिधि इस तरह मार्शलों से भिड़ते हैं तो अच्छा नहीं लगता. तो ठीक है, हम मार्शलों का अप्वाइंटमेंट न करके उनका भी चुनाव करा लिया करेंगे. इस तरह मार्शल भी जन प्रतिनिधि हो जायेंगे. दो चुने हुए प्रतिनिधि संसद के अन्दर कुछ भी कर सकते हैं. संविधान इसकी पूरी छूट देता है.

इतना खतरनाक काम करने वाले मार्शलों को पता नहीं पेंशन मिलती है कि नहीं. वह भी जन प्रतिनिधि बन जायेंगे तो कम से कम जिन्दगी भर के लिए सुख सुविधा तो पक्की हो जायेगी. आजादी के पचहत्तर साल पूरे होने तक हम यह कर लेंगे तो बड़ी उपलब्धि होगी !!