500 टीवी चैनलों, 10 हजार अख़बारों और करोड़ों सोशल मीडिया यूजरों में से कोई यह नहीं पूछ रहा कि मोदीजी मुख्यमंत्री चुनना तो विधायक दल का काम है। उसे करने दीजिये – पुष्य मित्रा

अभी अभी खबर उड़ी है कि योगी आदित्यनाथ को बीजेपी आलाकमान ने दिल्ली बुलाया है। क्या पता पंजाब का राज्यपाल बनने के लिये बुलाया गया हो? 🙂 मगर यह खबर सुनते ही हफ्ते भर से कयासबाजी में जुटे मीडिया वाले और सोशल मीडिया वाले योगी-योगी की पुकार लगाने लगे हैं। यही लोग तरसों केशव प्रसाद मौर्य का नाम ले रहे थे, परसों राजनाथ का और बीते कल में मनोज सिन्हा की ताजपोशी कर रहे थे। सभी की निगाह मोदी और अमित शाह की जोड़ी की तरफ है, उनके एक-एक जेस्चर को वॉच किया जा रहा है, हर कदम का मतलब निकाला जा रहा है। हफ्ते भर पहले तक जो मीडिया ज्योतिषी बना हुआ था, इन दिनों मनोवैज्ञानिक और फेस रीडर होने की अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहा है। 500 टीवी चैनलों, 10 हजार अख़बारों और करोड़ों सोशल मीडिया यूजरों में से कोई यह नहीं पूछ रहा कि मोदीजी मुख्यमंत्री चुनना तो विधायक दल का काम है। उसे करने दीजिये। विधायक दल को एम्पावर कीजिये। काहे इंदिरा गांधी बनना चाह रहे हैं। ज़माने के हिसाब से कुछ तो बदलिये।

यह सिर्फ यूपी की कहानी नहीं है। गोवा में एक केंद्रीय मंत्री को नियुक्त किया गया है। बिहार में हमारे नेता ने तो विधायकी का चुनाव ही लड़ना छोड़ दिया है, वे सीधे विधान परिषद पहुंच जाते हैं। मनमोहन सिंह ने दस साल का राजपाट इसी तरह चला लिया। यह अच्छा है कि कैप्टन साहब चुनाव लड़ कर आये हैं। मगर ज्यादातर मामलों में विधायक दल का नेता वही चुन लिया जा रहा है जो विधायक ही नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि आने वाले वक़्त में लोग इस बात को भूल ही जाएँ कि विधायक दल अपना नेता चुनती है और वही मुख्यमंत्री बनता है। यही नियम न बन जाये कि चुनाव पार्टी लड़ती है और मुख्यमंत्री की नियुक्ति पार्टी आलाकमान करता है। जरा गौर कीजिये, यूपी के तमाम संभावितों में एक भी ऐसा नाम नहीं है जिसने इस बार विधायकी का चुनाव जीता हो।

दरअसल, जब तक यह देश पार्टियों के आलाकमान व्यवस्था से छुटकारा नहीं पा लेता देश में असली लोकतंत्र का आना नामुमकिन है। हर बार लोकतंत्र के नाम पर या तो राजतंत्रीय व्यवस्था चलेगी या किसी एक व्यक्ति या परिवार की मनमर्जी। जब तक पार्टियों में इस तरह की व्यवस्था कायम रहेगी, शासन व्यवस्था में लोकतंत्र का आना नामुमकिन है। सच यही है कि इस देश में आज तक लोकतंत्र ठीक से आया ही नहीं है। पहले गांधी- नेहरू परिवार की मनमर्जी चलती रही, अब मोदी अपनी मर्जी चला रहे हैं। हर चुनाव के बाद सत्ताधारी दल लोकतान्त्रिक अधिकारों का अपहरण कर लेता है और जनता टुकुर-टुकुर अगले चुनाव की तरफ देखती रहती है।

2011 के अन्ना आंदोलन के बाद से देश की राजनीति की शुचिता को लेकर खूब बहसें हुईं। नतीजा यह हुआ कि राजनीतिक बहसों ने TRP की दौर में क्रिकेट और फिल्मों को काफी पीछे छोड़ दिया। मगर इससे बदला कुछ भी नहीं। राजनीति वहीँ की वहीँ रह गयी। कई जगह तो पतन का शिकार हो गयी। अरविन्द केजरीवाल से लेकर राहुल गांधी तक ने अपनी पार्टी की अंदरूनी व्यवस्था को सुधारने के नाम पर खूब ड्रामा किया, ऐसा लगा कि पार्टियों में भी सचमुच का लोकतंत्र आ जायेगा। मोहल्ला स्तर के कार्यकर्ता ही अंततः उम्मीदवार और पार्टी अध्यक्ष वगैरह का चयन करेंगे। योग्यता के बदौलत कोई भी चाय वाला से पीएम बन सकेगा। मगर अंततः हर जगह फिर से आलाकमान कल्चर लागू हो गया। चाय वाला, आरटीआई वाला, चरवाहा, दलित महिला सबके सब अपनी पार्टियों के सुप्रीमो हो गये और उस रास्ते को बंद कर दिया, जिस पर चल कर वे फर्श से अर्श पर पहुंचे थे। उसी सीढ़ी को गिरा दिया गया जिसने उन्हें 2 से सीधे 97 पर पहुंचा दिया था। फिर से कार्यकर्ता नौकर का नौकर रह गया।

दिक्कत यह है कि राजनीतिक दलों का कार्यकर्ता भी इस व्यवस्था पर सवाल नहीं उठाता। उसने मान लिया है कि उसका काम झंडा ढोना ही है। चाहे राहुल की पार्टी का कार्यकर्ता हो, मोदी की पार्टी का ही, नीतीश की पार्टी का हो, केजरीवाल की पार्टी का हो, लालू की पार्टी का हो, मुलायम, ममता या माया के दल का हो। हर जगह टॉप स्लॉट रिजर्व है। कार्यकर्ता मान चुका है कि प्रतिभा और मेहनत सबसे थर्ड क्लास चीज है। आलाकमान की कृपा दृष्टि का असल महत्व है, वह बनी रहनी चाहिये। सीएम की कुर्सी से लेकर गली की सड़क के ठेके तक के लिये यह जरूरी है। इसलिये वह आलाकमान और अपने गॉड फादर की जय जयकार करने में अपनी ऊर्जा खपाता है। अपने नेता की बड़ी तस्वीरों वाली होर्डिंग लगवाता है और नीचे में अपनी छोटी सी तस्वीर लगाता है, इस उम्मीद में कि नेताजी की निगाह पड़ जाये। राजनीतिक दलों में सफलता का यही सबसे हिट फार्मूला है। जो नेता हर सफलता का श्रेय अपने नेता को दे और असफलता का जिम्मा हँसते हँसते लेने को तैयार हो जाये उसे सफलता जरूर मिलती है।

आप दो मिनट धैर्य रख कर सोचिये कि इस व्यवस्था के तहत कोई राजनीतिक दल कैसे हमें एक बेहतर नेता दे सकते हैं। यह ठीक है कि मोदी शेर है मगर उसके नीचे तो सारे के सारे सियार ही पल रहे हैं। हर दल का यही हाल है। असहमति का मतलब बगावत मान लिया जाता है। और नेता से अगर कोई असहमत है तो उसका छह साल के लिये निष्कासन तय है, फिर चाहे वह योगेंद्र यादव या प्रशांत भूषण ही क्यों न हो। सच मानिये इस तानाशाही और व्यक्तिवादी तरीके से चलने वाले राजनीतिक दल हमें कभी बेहतर विकल्प नहीं दे सकते।