वामपंथियों को अपदस्थ करना इतना आसान नहीं है। खास तौर पर ऐसी सरकार के लिए जिसके पास बौद्धिकों का कोई बैक अप नहीं है – पीयूष मित्रा

सचमुच मैं इन दिनों बहुत भयभीत हूँ
जो जमात भारत की बर्बादी के नारे को जस्टिफाई कर सकती है, वह कुछ भी कर सकती है। हमने ऐसे लोगों के साये में भी आजादी के बाद के साल बिताये हैं। इन्होंने ही सरकारी अकादमियों में बैठ कर किताबें लिखी हैं कि भारतीय एक असफल कौम है। ये अब तक चुप इस वजह से थे कि अब तक इनकी मर्जी की सरकार थी। जब-जब इनका कोई विरोधी सत्ता में आता है, ये अपने सुरक्षित बिलों से बाहर आ जाते हैं और इतना हुआ-हुआ करते हैं कि सरकार अस्थिर हो जाये।

सत्ता प्रतिष्ठानों में इनकी गहरी पैठ है। आधी सदी से इन्होंने विश्वविद्यालयों, अकादमियों, स्वयंसेवी संगठनों और मीडिया प्रतिष्ठानों के रेशे-रेशे तक अपनी पहुँच का विस्तार किया है। इन्हें अपदस्थ करना इतना आसान नहीं है। खास तौर पर ऐसी सरकार के लिए जिसके पास बौद्धिकों का कोई बैक अप नहीं है।

जेएनयू प्रकरण ने साबित किया है कि ये आज भी मजबूत और संगठित हैं। इतने कि देश को गाली देकर भी अपने विरोधियों को ही दोषी साबित कर सकते हैं। मुझे लगातार लोगों ने समझाया है कि बौद्धिकों की दुनिया में जिन्दा रहना है तो इन वामपंथियों से पंगा मत लो। मैं नहीं मानता था। मैं सोचता था, सच जरूरी है, पंथ नहीं। अभी भी यही सोचता हूँ, मगर भयभीत हूँ। रोज वामपंथी मुझे फासिस्ट साबित करने की कोशिश करते हैं। अलग अलग तरीके से ख़ारिज करना चाहते हैं। ऐसा तमाम दूसरे वाम विरोधियों के साथ होता है।
बौद्धिक दुनिया में वाम विरोधी होना वैसा ही है, जैसा केरल में आरएसएस कार्यकर्त्ता होना। किसी रोज आपको घर घुस कर मारा जा सकता है। फिर भी मैं अडा हुआ हूँ। क्योंकि मैं चाहता हूँ कि इस देश को एक ऐसा बौद्धिक समाज मिले। जो इस देश, यहाँ की मिटटी, परम्पराएँ, लोग और समाज को प्यार करे। उसे पग-पग पर नीचा न दिखाए। मगर यह दिन अभी काफी दूर है। इसलिए मैं उदास हूँ।

 

पीयूष मित्रा