राजेश बैरागी l न्यायालयों के कामकाज में मेरी विशेष रुचि है।2001 से लेकर 2005 तक मैंने जिला न्यायालय गौतमबुद्धनगर में दिनभर खड़े रहकर हिन्दुस्तान समाचार पत्र के लिए रिपोर्टिंग की थी।उस समय के न्यायिक अधिकारी, अधिवक्ता और बहुत से वादकारी मुझे पहचानते थे। मैं इस न्यायालय के उद्घाटन समारोह का भी साक्षी रहा हूं।तब से अब तक गाहे बगाहे मैं जिला न्यायालय गौतमबुद्धनगर में चला जाता हूं और किन्हीं न्यायालयों में बैठकर उनकी कार्यवाही को देखता हूं। न्यायालय ऐसी जगह है जहां ऊपरी तौर पर प्रतिदिन एक जैसी गतिविधियां होती हैं। परंतु यह सच नहीं है।
न्यायालय परिसर में चर्चा थी कि एक न्यायिक अधिकारी द्वारा किसी आरोपी को लीक से हटकर जमानत प्रदान कर दी गई है। अधिवक्ताओं का आरोप था कि ऐसा सरकारी वकील और न्यायिक अधिकारी की सांठगांठ से हुआ। यदि यह सच है तो यह कदाचार का मामला हो सकता है परंतु इस पर हड़ताल क्यों? बहरहाल हड़ताल नहीं हुई तो सबने राहत की सांस ली। न्यायालय अपने कामकाज पर लगीं। जिला न्यायालय के मुख्य भवन में 21 अदालतें चलती हैं। इसके पीछे दस अदालतें और बनी हैं। पीछे बनी अदालतें क्या हैं यातना गृह हैं।तीस तीस वर्ग गज में बनी अदालतों में अधिवक्ता और वादकारी जब जुटते हैं तो सब्जी मंडी का दृश्य साकार होने लगता है। ऐसे में न्याय कैसे हो सकता है?
परंतु अधिवक्ताओं को मैंने कभी न्यायालय कक्षों को बड़ा बनाने की मांग पर हड़ताल करते नहीं देखा। चतुर्थ वित्त आयोग की अनुशंसा पर महिला अपराध, पोक्सो, आर्थिक अपराध के मामलों के त्वरित निस्तारण के लिए गठित विशेष अदालतों में कुछ सेवानिवृत्त न्यायाधीश भी बैठाए गए हैं।ऐसी ही एक अदालत में एक अधिवक्ता न्यायिक अधिकारी के समक्ष खचाखच भरी अदालत में दुखड़ा रो रहे थे कि उन्हें अपने मुवक्किल को जवाब देना भारी पड़ रहा है कि उसकी जमानत क्यों नहीं हो रही है जबकि सह आरोपियों को जमानत मिल चुकी है। न्यायालय ने उन्हें एक प्रार्थना पत्र देने को कहा तो वो तैयार नहीं हुए। मैं पसीने से तरबतर बाहर निकला तो पेड़ों के नीचे बेंच पर एक सोलह सत्रह बरस की गुमसुम बैठी लड़की दिखाई दी। मैंने उससे पूछा, बेटी तुम यहां क्यों आई हो? उसके पिता ने जवाब दिया, इसके साथ किसी ने गंदा काम किया है। मैंने पीछे मुड़कर एक बार फिर न्यायालयों को देखा और बाहर चला आया।