अमर आनंद I गुजरात में जीत के दो नायकों मोदी और शाह के पराक्रम की गाथा का आनंद ले रही बीजेपी 2024 की तैयारी में है। गुजरात जितवाने में दिन रात एक कर देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन में 2024 के लिए संदेश और संकेत साफ नजर आ रहे हैं।
इस बीच मंत्रिमंडल में मोदी के सबसे चर्चित और विकास का चेहरा माने जाने वाले गडकरी कुछ अलग ही अंदाज में बात कर रहें है। एक तरफ प्रधानमंत्री के साथ महाराष्ट्र में राजमार्ग के शुभारंभ में शामिल हो रहें है तो दूसरी तरफ किसी और मंच पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन की आर्थिक नीतियों की तारीफ कर रहे हैं और ये भी कह रहे हैं कि वो बिना चुनावी खर्च किए ही वो पिछली बार से ज्यादा अंतर से जीत दर्ज करेंगे।
हालांकि पार्टी की संसदीय बोर्ड से हटाए गए यही गडकरी कभी कभार राजनीति से संन्यास की भी बात करते रहे हैं। दिल्ली से मुंबई तक कई मौकों पर रास्ता रोके जाने की कोशिशों के बावजूद संघ के खास नितिन गडकरी अपनी सियासी जीवन के सबसे निर्णायक मोड़ पर है। वो कद में मोदी से थोड़े छोटे जरूर है लेकिन शाह से कई गुना बड़े हैं। हालांकि 2024 के मामले में दोनों की ही छवि उनको चुनौती देती नज़र आएंगी। पराक्रम के परम पर दिख रहे मोदी के बाद प्रधानमंत्री पद की हसरत पाले अमित शाह की भी। यह भी जाहिर है गुजरात के चुनाव में जीत के लक्ष्य की तरह ही नरेंद्र मोदी और शाह का लक्ष्य और निशाना तकरीबन एक ही होता है और गडकरी भी दोनों का निशाना हो सकते हैं।
यह सच है कि गुजरात समेत कई चुनावी जीत के नायक नरेंद्र मोदी पार्टी में चाल, चरित्र और चेहरा बदलने वाले पार्टी के एक दमदार नेता हैं और उनका असर भय, भाव और भक्ति समेत कई रंगों में अलग अलग लोगों को नजर आता है लेकिन गडकरी की भी एक अपनी बड़ी पहचान है और पार्टी के अंदर बाहर उनको लोकप्रियता भी। मोदी चाहकर भी गडकरी को 2024 के परिदृश्य से उस तरह नहीं हटा सकते जैसे नागपुर में समृद्धि महामार्ग के शुभारंभ वाले आयोजन में मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को हाथ पकड़कर कैमरे के फ्रेम से हटाते नजर आ रहे है लेकिन हां राजमार्ग के शुभारंभ वाले आयोजन के विज्ञापन में विभागीय मंत्री यानी गडकरी की तस्वीर जरूर हटवाई जा सकती है और ऐसा हुआ भी है।
उस विज्ञापन में पीएम मोदी के अलावा शिंदे और फडणवीस की तस्वीर है लेकिन गडकरी की नहीं, उनका नाम भर है। ऐसा लगता है और दिखता है कि नरेंद्र मोदी गडकरी के समानांतर फडणवीस को महाराष्ट्र में एक ऐसी ताकत के रूप में विकसित करना चाहते हैं जिसका महाराष्ट्र में तो दिलचस्पी हो लेकिन राष्ट्र में नहीं और राष्ट्र के मामले में उनके बाद शाह की दावेदारी को कम से कम महाराष्ट्र से चुनौती न ही मिले। सबको यह नजर आ रहा है कि किस तरह दो गुजरातियों की एकता कमाल कर रही है और यह भी कि दो नागपुरियों की अनेकता अपना असर दिखा रही है। एक जगह से ताल्लुक रखने वाले गडकरी और फडनवीस महाराष्ट्र से राष्ट्र तक दिल्ली की ‘ कृपा ‘ से आला – थलग नजर आ रहे हैं।
गुजरात विधानसभा चुनाव में जीत की गूंज के साथ पार्टी में एक बार फिर से अपराजेय हुए नरेंद्र मोदी और उनके अविभाज्य साथी अमित शाह के लिए खुश होने के लिए यह जीत बड़ी वजह बन गई है। हालांकि यह अलग बात है कि जिस दिल्ली में इस जीत का जश्न मनाया गया वह दिल्ली इनकी होने की बजाय पूरी तरह आप की है। जीत की हार में जो चेहरे मौजूद थे उनमें से एक पार्टी के अध्यक्ष और हिमाचल के नेता जेपी नड्डा पर गुजरात में जीत की मिठास की जगह हिमाचल में हार की खटास हावी रही और वह माला के अंदर बमुश्किल मुस्कुराने की कोशिश कर रहे थे।
कभी जीत के बाद के जश्न के अवसरों पर मोदी के बगल में बतौर पार्टी अध्यक्ष खड़े रहने वाले अमित शाह के लिए उनके और मोदी के बीच में दिखने वाले नड्डा का दुख अपनी जीत के सुख के आगे कोई मायने नहीं रखता। यही राजनीति है और राज को पूरी तरह प्राप्त करने की राह भी।
शाह उस दौर में खुद को मोदी के बाद दिखने , दिखाने की पूरी कोशिश में है जिस दौर में गडकरी जैसे परफॉर्मर मंत्री किनारे किए जा रहे है। राजनाथ सिंह माला में मोदी के बगल में खड़े होकर महज मुस्करा रहे है और नड्डा आने वाले वक्त की आहट को महसूस कर रहे हैं। हर तरफ बदलाव है लेकिन गुजरात के प्रभाव में नहीं। गुजरात भारत की सत्ता पर 2014 से हावी रहा है और 2024 में भी हावी रहेगा और इस बात से महाराष्ट्र अगर नाखुश हैं। उत्तर प्रदेश अगर असंतुष्ट है तो इसका गुजरात की सेहत पर कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। गुजरात की जीत के तो यही संदेश है मोदी और शाह के हवाले ही देश है।
हिमाचल के परिणामों में पार्टी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का प्रकाश कम कर दिया है और ठाकुर के लिए मोदी और शाह के ‘अनुराग’ में भी कमी आई है।
तो क्या संघ एक बार फिर मोदी शाह के प्रभाव में अपनी आगे की रणनीति बनाएगा ? या गडकरी के प्रयासों का भी कोई रंग नजर आएगा? इन सवालों के बीच कई नेता मूकदर्शक, मजबूर और लापरवाह किस्म के रवैए के साथ कायम हैं यह सोच रहे हैं कि जो भी होगा, देखा जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)