संपादकीय : कुंआ और खाई के बीच नरेंद्र भाटी

राजेश बैरागी I क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रभावशाली नेता नरेंद्र भाटी ने समाजवादी पार्टी से भाजपा में आकर बड़ी गलती कर ली है?

इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले यह पड़ताल की जानी चाहिए कि छोटे भाई कैलाश भाटी को संरक्षित न कर पाने का उन्हें कितना मलाल है। नरेंद्र भाटी भाजपा की बाढ़ में बह गए। उन्हें समाजवादी पार्टी के नेतृत्व पर भरोसा नहीं रहा।वे जन्मजात थर्ड फ्रंट के नेता रहे हैं। सरकार कोई रहे, नरेंद्र भाटी की हनक कम नहीं हुई।

उन्होंने कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में गाजियाबाद के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक शैलजाकांत मिश्रा को चुनौती देने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निक्कर भेंट कर दिया था।वे जय श्री राम का नारा लगाने वालों की खिल्ली उड़ाते थे।ऐसी पृष्ठभूमि के बावजूद उन्होंने भाजपा का दामन थामा। मैंने तब लिखा था कि क्या नरेंद्र भाटी जय श्री राम का नारा लगा पाएंगे।

भाजपा ने उन्हें वादे के अनुसार विधान परिषद की सदस्यता बख्शी और उनकी हनक छीन ली।जैसा लोग बताते हैं, नरेंद्र भाटी भाजपा में शामिल होने के अपने फैसले से खुश नहीं हैं।उनकी गतिविधियां सीमित हो गई हैं।वे अपने भाई का ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण से स्थानांतरण रोक पाने में असमर्थ रहे।

अब तुस्याना में भूमि घोटाले में उसकी गिरफ्तारी ने रही सही कसर पूरी कर दी है। इस मामले की लपटें उन्हें भी झुलसा सकती हैं। क्या भाजपा में ही उन्हें कोई मिटा देना चाहता है। ख़बरें हैं कि जनपद गौतमबुद्धनगर में भूमाफियाओं व बिल्डरों को संरक्षण दे रहा एक और भाजपाई गुर्जर नेता उनके साम्राज्य और उनकी राजनीति को पूरी तरह समाप्त करने के लिए प्रयासरत है। आलाकमान से अच्छे संबंधों के बल पर वह ऐसा कर पाने में सक्षम बताया जा रहा है। नरेंद्र भाटी यदि समाजवादी पार्टी में रहते तो न उसे समस्या होती और न इन्हें अपनी रक्षा करने में ही समस्या होती।तब नरेंद्र भाटी उसकी अच्छी खासी वाट लगा सकते थे। यहां पार्टी विद डिफरेंट का सिद्धांत चलता है। यही सिद्धांत नरेंद्र भाटी के गले की हड्डी बन गया है।

लेखक नेक दृष्टि हिंदी साप्ताहिक के संपादक है