राजेश बैरागी । यदि डेढ़ महीना कम तीन साल के कार्यकाल के बाद किसी अधिकारी के तबादले को अपमानजनक विदाई कहा जाए तो यह उचित नहीं है। गौतमबुद्धनगर पुलिस कमिश्नरेट के पहले आयुक्त आलोक सिंह ने अपना कार्यकाल पूरी हनक और अपने तरीके से पूरा किया। उन्हें यहां पुलिस कमिश्नरेट प्रणाली को ठीक ठाक स्थापित करने का श्रेय है। मितभाषी, कठोर और अनुशासन प्रिय आलोक सिंह ने अपने मातहत अधिकारियों को निर्भीक होकर काम करने की स्वतंत्रता दी परंतु अपना खौफ कायम रखा।
पिछले लगभग तीन वर्षों में अपराधों पर नियंत्रण, पीड़ित की प्राथमिकी दर्ज करने और मुकदमों में प्रभावी पैरवी कर अपराधियों को सजा दिलवाने में यदि कुछ विशेष उल्लेखनीय नहीं है तो गिरावट भी नहीं आई। उन्होंने पुलिस कमिश्नर होने के समस्त अधिकारों का आनंद लिया और कोरोना महामारी के दौरान पुलिस का मानवीय चेहरा स्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
उनके कार्यकाल की कुछ उपलब्धियों को ऐसे गिना जा सकता है,जैसे उन्होंने यहां कई गिरोह बंद अपराधी माफियाओं को लगभग समाप्त कर दिया। हालांकि उनके बर अक्स नये माफिया खड़े हुए और उन्हें संरक्षण भी मिला।
उनके समय में हुए किसान आंदोलन और अन्य आंदोलनों में कोई अप्रिय घटना नहीं हुई और पुलिस की शक्ति व संसाधनों में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई। उनसे अधिकारों के बर्चस्व की सीधी लड़ाई में पूर्व जिलाधिकारी बी एन सिंह को मुंह की खानी पड़ी। दूसरे व वर्तमान जिलाधिकारी सुहास एलवाई से उन्होंने अंतरंगता बनाई और इस जोड़ी ने राग और ताल की तरह जुगलबंदी पेश की।
उनपर ठाकुरवाद को महत्व देने के आरोप भी लगे। इसी कारण उनका स्थानीय सांसद डॉ महेश शर्मा से लगभग प्रारंभ से ही छत्तीस का आंकड़ा रहा। श्रीकांत त्यागी प्रकरण ने इसे खटास में बदल दिया। हालांकि दोनों के बीच बर्चस्व जैसी कोई बात नहीं थी। इस सबके बावजूद स्थानांतरण एक सामान्य प्रशासनिक प्रक्रिया है।
इस अवसर पर सांसद समर्थकों द्वारा आधी रात में सोशल मीडिया पर झूमना ‘अंधे के हाथ बटेर लगने’ जैसा है। यदि उनका किया कराया था तो खुशी का इजहार दिन के उजाले में शुरू हो जाना चाहिए था, फिर आधी रात का इंतजार क्यों हुआ? संभवतः यह दुआ कबूल हो जाने की खुशी रही होगी।
लेखक नेक दृष्टि हिंदी साप्ताहिक नौएडा के संपादक है