हिंदी पत्रकारिता तो जैसे वैटिलेटर पर अपनी आखरी सांसे गिन रही है : धीरज फूलमती सिंह

हाल ही में ईकरा फाऊँडेशन द्वारा एक सर्वे हुआ था,जिसमे यह बात उभरकर आयी कि लोग सबसे ज्यादा अविश्वास पत्रकारों पर करते है। मतलब भारतीय लोग पत्रकारो पर भरोसा नही करते है।

मै इस सर्वे के रिजल्ट को देखा तो मुझे ताज्जुब हुआ क्यो कि समाज में पुलिस के बाद पत्रकार ही वह बिरादरी है,जो सब से ज्यादा खतरे मोल लेती है। वह भी बिना किसी निश्चित मासिक तनख्वाह के! पुलिस की तरह पत्रकारो को ना सरकार की तरफ से तनख्वाह मिलता है,ना संस्थान ही उतनी किमत देती है,जिसके लिए वे दिन रात काम करते है।

पत्रकारो की हालत ब्राह्मणो जैसी है,पूजा पाठ के वक्त जो दक्षिणा मिल जाए, उसी से घर परिवार चलाना पडता है। यजमान करोडो का घर खरीद ले,लाखो रूपये शादी ब्याह में खर्च कर देगा लेकिन पूजा की बेदी पर बैठे ब्राह्मण को दक्षिणा देते समय जोर से मुट्ठी बांध लेता है। बडी मुश्किल से दिल पर पत्थर रखकर दक्षिणा सरकाता है।

पत्रकार भी जिनकी खबरे छापते है, उसी कुछ मिल जाने की आस लगाए रहते है ताकि घर परिवार का खर्च चल सके! उपर से अखबारी संस्थान उनकी खबर ऐसे छापते है,जैसे उनपर कोई मेहरबानी कर रहे है। जब तक घुडकी भी दिये रहते है लेकिन तनख्वाह नही देते,कोई संस्थान तनख्वाह देता भी है तो मुट्ठी बांध कर उंट के मूह में जीरे बराबर की रकम!
समाज सेवक और छुट भैये नेता टाईप लोग अपनी खबरों के लिए इन पत्रकारो का खूब इस्तेमाल करते है,समय बे समय,कई बार उपयोग किये गये 100/- रूपये के गुलदस्ते और 60-70 रूपये की शॉल से इनका स्वागत सत्कार कर फोटो खिचवा देते है,बेचारे पत्रकार इतने में खूश हो जाते है। उनको पता नही होता कि छुट भैये नेता, समाज सेवक यह सब इस लिए कर रहे है ताकि भविष्य में अपनी खबरो के लिए उनका इस्तेमाल कर सकें!

पत्रकारिता क्षेत्र में भ्रष्टाचार फैलने का एक कारण यह भी है कि यहा अधिकांश पत्रकारो को तनख्वाह नही मिलती, जिनको मिलती भी है तो बस नाममात्र की,संस्थान सिर्फ उनको अपना पहचान पत्र देकर इतिश्री समझ लेता है। कईयो को तो पहचान पत्र भी नही मिलता,ऐसे ही खबरे देकर पत्रकारिता करते है। पत्रकार भी इंसान होते है,उन्हे भी जीने और अपना गुजारा करने का हक है,तो वे अपना खर्च कैसे निकाले ? वैसे मै पूछना चाहता हूँ कि किस संस्थान, किस क्षेत्र में भ्रष्टाचार नही है। फिर पत्रकारो और डॉक्टरो से ही आदर्शवाद की आशा क्यो लगा कर रखी जाती है ?

हिदी के साथ क्षेत्रीय पत्रकारिता मरणासन्न है,आमदनी का सबसे मुख्य जरिया विज्ञापन गायब है या कम है। हिदी पत्रकारिता तो जैसे वैटिलेटर पर अपनी आखरी सांसे गिन रही है। अंग्रेजी दा अखबार जरूर बेहतर स्थिती में है,उपर से तुर्रा यह कि हिंदी भारत की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है,समय-समय पर हिदी को राष्ट्र भाषा घोषित करने की आवाज़े उठती रहती है।

आज खोजी पत्रकारिता लगभग गायब सी हो गई है,अब खोजी पत्रकार नही मिलते,मुफ्त में कौन पत्रकार अपनी जान दे,जोखिम उठाये,उन्हे क्या मिलता है ? मिडिया का स्तर गिरते जा रहा है। इस के पीछे भी यही कारण है कि न्यूज संस्थान पत्रकारो को दोयम दर्जे का महत्व देते है, उनको वह सम्मान नही मिलता,जो पहले मिलता था। इस लिए आज पत्रकार भी खबरो के नाम पर सिर्फ खाना पूर्ति ही करते है।
पत्रकारिता में अब वह पहले जैसा जोश और विश्वास नही रहा,ना उतनी आमदनी ही है। जो पुराने पत्रकार है,वे इस पेशे को छोडते जा रहे है या फिर शौकिया तौर पर अपनाएं है,जो वर्तमान में पत्रकारिता कर रहे है,वे विकल्प के अभाव में मजबूरी में टिके हुए है और नये पत्रकार इस पेशे में आना नही चाहते,जो आ रहे है,वे भी दिल से इस पेशे को नही अपना रहे है। उच्च शिक्षित वर्ग तो पत्रकारिता को दूर से ही सलाम कर देता है क्यों कि पत्रकारिता में पहले जैसा ना सम्मान है,ना आमदनी और ना ही रोमांच!

ऐसी विपरीत परिस्थितयो के बावजूद जो पत्रकार इस पेशे को अपनाएं हुए है,इन दिनो साहसी पत्रकारिता कर रहे है,उनको सलाम और सम्मान करने का दिल चाहता है।

धीरज फूलमती सिंह

लेख में दिए विचारो से एनसीआर खबर का सहमत होना आवश्यक नही है