केके अस्थाना । एक जमाना था जब हर चौथी फिल्म में वैद्य जी का रोल होता था. आखिरी हिंदी फिल्म जिसमे वैद्य जी का ठीक ठाक चित्रण हुआ था वह थी ‘नदिया के पार’ इसमें वैद्य जी किसी ऐरे गेरे रोल में नहीं, सीधे हीरोइन के पिताजी के रोल में थे. यह थी वैद्य जी की हनक!
दर्शकों को आज भी याद होगा कि जब चन्दन पहली बार गुंजा के घर पंहुचा उस समय वैद्य जी घर पर नहीं थे. वैद्य जी की पत्नी ने चन्दन को बताया था कि वैद्य जी पड़ोस के गाँव में मरीज देखने गए हैं. इससे साफ़ पता चलता है कि उस जमाने तक गावों में असली वाले वैद्य पाए जाते थे और वह पड़ोस के गाँव तक मरीज देखने भी जाते थे. आज की तरह थोड़े ही था कि घर वाले तक वैद्य की दवा न लें. और वैद्य जी खुद भी सर दर्द के लिए अंग्रेजी दवा की गोली खायें.
असली वैद्य हमेशा धोती पहनता है. ऊपर कुर्ता या कमीज कुछ भी पहन सकता है. पर वैद्य होने के लिए धोती जरुरी है. और ज्यादा अच्छा वैद्य होगा तो कुर्ते या कमीज की जगह कपडे की सिली हुई बनियान नुमा चीज पहनेगा, जिसमे एक तिरछी सी जेब लगी रहती है. जैसी नदिया के पार में गुंजा के बाबू ने पहनी थी या फिर मदर इंडिया में सुक्खी लाला ने !
फिल्मों का इतिहास गवाह है कि आज तक किसी फिल्म में भी वैद्य को पैंट शर्ट पहने नहीं दिखाया गया. पेंट शर्ट पहना दी तो वो आयुर्वेदिक डॉक्टर तो लग सकता है पर वैद्य नहीं, जिसके पीछे आचार्य चरक और आचार्य सुश्रुत की संयुक्त आभा दिखाई दे. वह धोती से ही आ सकती है. यही कारण है कि आज भी सारे मशहूर वैद्य बाहर भले ही पैंट शर्ट पहने, पर दवाखाने में धोती पहन कर ही बैठते हैं.
फिल्म वालों ने फिल्मों में वैद्यों को दिखा दिखा कर आयुर्वेद की महान परम्परा को जनता की याददाश्त में जीवित रखा है. आयुर्वेद इसके लिए फिल्मों का ऋणी है. पर फिल्मों ने एक काम अच्छा नहीं किया. पुराने जमाने की दुखांत फिल्मों में हीरोइन के हड्डी के ढाँचे जैसे बाप की नाड़ी देखते ही वैद्य जी इलाज करने से मना कर देते थे. एक शोक वाली धुन के बैकग्राउंड म्यूजिक के साथ उसे शहर के बड़े डॉक्टर के पास ले जाने की सलाह देते थे. बस यहीं से आयुर्वेद का इम्प्रेशन खराब होना शुरू हो गया. जनता के बीच सन्देश यह जाता था कि हलकी फुलकी बीमारी के लिए तो वैद्य जी ठीक हैं. बीमारी बड़ी है तो शहर जाना ही पड़ेगा.
वैद्य जी की इस खराब छवि को तोड़ा प्रेम रोग ने. जिन लोगों ने ‘प्रेम रोग’ नामक चलचित्र यानी फिल्म देखी है उन्हें बताने की जरुरत नहीं है कि पुरानी और असाध्य बीमारियों के लिए वैद्य की शरण में ही जाना पड़ता है. उसकी दवा आयुर्वेद में ही है. इस फिल्म में हीरोइन चिल्ला चिल्ला कर दुनिया को बताती है कि ‘मै हूँ प्रेम रोगी, मेरी दवा तो कराओ’ पर कोई ध्यान नहीं देता है. फिर वह नाच नाच कर कहती है कि ‘जाओ, जाओ, जाओ… किसी वैद्य को बुलाओ! मेरा इलाज कराओ !’ पता नहीं उसका इलाज बाद में किसी वैद्य ने किया था या नहीं, पर उसने एक बार नहीं कहा कि जाओ जाओ जाओ किसी एलोपैथ को बुलाओ !! उसे पता था कि असाध्य रोगों में वैद्य से अच्छा इलाज कोई कर ही नहीं सकता. फिल्म के काबिल निर्देशक को भी पता था कि इस रोग की दवा एओलोपैथ के पास नहीं मिलेगी. वरना वह गाने के बोल बदल देता. जाओ जाओ जाओ किसी डॉक्टर को बुलाओ कर देता.
वैसे फिल्मों ने वैद्यों के खिलाफ एक पक्षपात और भी किया है. मेरी सूचना और मेरे ज्ञान के अनुसार आज तक किसी भी फिल्म में हीरो को वैद्य नहीं दर्शाया गया है. डॉक्टरों पर तो सैकड़ों फिल्मे बनी हैं. हर विशेषज्ञता का डॉक्टर हीरो बन चुका होगा, पर एक वैद्य हीरो बनने के लिए आज भी तरस रहा है. हजारों हीरो की माँ निरूपा राय ने अपनी एक अदद सिलाई मशीन के सहारे एक बार भी यह सपना नहीं देखा कि मेरा बेटा बड़ा होकर बहुत बड़ा वैद्य बनेगा.
वह हमेशा यही सपना देखती रही कि मेरा बेटा बहुत बड़ा डॉक्टर बनेगा. इंजीनियर और जाने क्या क्या बना डाला होगा. पर वैद्य आज तक नहीं बनाया. फिल्म में हीरोइन डॉक्टर के साथ, आर्मी ऑफिसर के साथ और इंजीनियर के साथ तो पेड़ के चारों ओर गाने गाते और नाचते हुए पचासों फिल्मों में भागी होगी, पर बेचारे वैद्य के साथ एक फिल्म तक में नहीं भागी. यही कारण है कि वैद्य को समाज में वह जगह नहीं मिल पायी जो एलोपैथिक डॉक्टर को मिली. आयुर्वेद को दबा कर रखने में अंग्रेजों और अंग्रेजी डॉक्टरों का ही नहीं फिल्मो का हाथ भी है.
यहाँ आयुर्वेदिक डॉक्टर और वैद्य के बीच अंतर जान लेना बहुत आवश्यक है. वैद्य अधिकतर राजा की तरह होता है. अर्थात वैदगी उसे पिता से विरासत में मिलती है. यही कारण है कि ज्यादातर वैद्य अपने वैद्य पिताजी के साथ दवाइयां कूटते पीसते धीरे धीरे वैदगी सीख लेते हैं और पिता के गुजर जाने के बाद फुल टाइम उनके दवाखाने में बैठना शुरू कर देते हैं. जबकि आयुर्वेदिक डॉक्टरों की पढाई के लिए आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज होता हैं. यहाँ से पढ़ कर बाहर निकले मनुष्य को आज तक पता नहीं चल पाया है कि वह वैद्य है या डॉक्टर ! कॉलेज अपनी समझ से वैद्य बना कर निकालता है. पर वह खुद को आयुर्वेदिक डॉक्टर मानने लगता है. डॉक्टर और वैद्य के बीच के इस द्वंद्व में वह जिन्दगी भर डूबता उतराता रहता है.
उधर पिताजी की दुकान में बैठा वैद्य भी एक अदद आला और थर्मामीटर खरीद कर धीरे से खुद को डॉक्टर साहब कहलवाने लगता है. अपने मरीजों को अपने पिता जी यानी सीनियर वैद्य जी के किस्से सुना सुना कर अंग्रेजी दवाइयों से इलाज करता है. हालाँकि आयुर्वेद ज्यादा अच्छा है या ऐलोपैथी, इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहता. फिर भी अक्सर आयुर्वेद के पक्ष में भिड़ा रहता है.
के के अस्थाना व्यंगकार है एनसीआर खबर का लेख से सहमत होना आवश्यक नहीं है