नारी शब्द ही शक्तिस्वरूप है इसके अन्य पर्यायवाची स्त्री भामिनी कांता महिला आदि हैं। नारी के लिए सबसे अधिक प्रयोग में आने वाले शब्द स्त्री व महिला हैं। स्त्री शब्द स्त्यै धातु से बना है जिसका अर्थ है सिकुड़ना इकट्ठा करना सहेजना बनाना समेटना, वास्तव में यह सब स्त्री के स्वभाव में होते हैं। महिला शब्द मह धातु के मही शब्द से बना है मही का अर्थ है पृथ्वी। इस अर्थ में महिला पृथ्वी की तरह ही सहनशील, उर्जा से परिपूर्ण, अनेक रहस्यों को अपने में छुपाए रखने वाली तथा सर्वदा दाता होती है धरती जैसे इन गुणों को धारण करने के कारण महिला को पूजनीय कहते हैं। उर्दू भाषा में नारी को ‘जनानी’ भी कहा जाता है यह शब्द भी संस्कृत भाषा के ‘जननी’ शब्द का ही एक रूप लगता है जिसका अर्थ है जन्म दात्री। वास्तव में नारी का पूर्ण स्वरूप मातृत्व में ही विकसित होता है। भारतीय संस्कृति में तो नारी ही सृष्टि की समग्र अधिष्ठात्री मानी जाती है। पूरी सृष्टि ही स्त्री है सृष्टि के विभिन्न रूपों में स्त्री ही व्याप्त है। नारी भावों की अभिव्यक्ति है। पारंपरिक दर्शन में पुरुष प्रधान समाज दिखता हो किंतु भारतीय दर्शन और संस्कृति की मूल अवधारणा में नारी ही शक्तिस्वरूपा है। भारतीय नारी ने अपने त्याग और तपस्या की शक्ति से भारतीय संस्कृति को पाला पोसा हैं।
मनुस्मृति में नारी के सम्बन्ध में एक उक्ति मिलती है— ‘यत्र नार्यस्त पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का निवास रहता है। इस कथन का मन्तव्य है समाज को नारी का आदर करने के लिए प्रेरणा प्रदान करना, क्योंकि जहाँ नारी को आदर-सम्मान दिया जाता है, वहीं सुख, समृद्धि एवं शान्ति रहती है। नर-नारी समाज रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं, यदि इनमें से एक पहिया निकल जाएगा या उसे छोटा-बड़ा कर दिया जाएगा तो गाड़ी नहीं चल पाएगी।
प्राचीन भारत में नारी शिक्षा का भी विधान था। इसका प्रमाण हैं वे विदुषी नारियां- मैत्रेयी, गार्गी, मदालसा, अनुसूया, आदि जिन्होंने बड़े-बड़े विद्वानों को भी परास्त किया। सीता, सावित्री, शकुन्तला को नारी रत्न माना गया जिन्होंने अपने कार्य एवं व्यवहार से संसार के समक्ष आदर्श उपस्थित किया। महाकवि कालिदास ने नारी की सामाजिक भूमिका का उल्लेख करते हुए उसे ‘गृहिणी, सचिवः प्रिय सखी’ कहा है। प्राचीन भारत में नारी को अनेक अधिकार प्राप्त थे। वे स्वेच्छा से ‘वर’ चुनती थीं, स्वयंवर प्रथा इसका प्रमाण है।
शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य ऋषि की धर्मपत्नी मैत्रेयी को ब्रह्मवादिनी कहा गया है, भारद्वाज की पुत्री श्रुतावती जो ब्रह्मचारिणि थी। कुमारी के साथ-साथ ब्रह्मचारिणि शब्द लगाने का तात्पर्य यह है कि वह अविवाहित और वेदाध्ययन करने वाली थी। महात्मा शाण्डिल्य की पुत्री ‘श्रीमती’ थी, जिसने व्रतों को धारण किया। वेदाध्ययन में निरन्तर प्रवृत्त थी। अत्यन्त कठिन तप करके वह देव ब्राह्मणों से अधिक पूजित हुई। इस प्रकार की नैष्ठिक ब्रह्मचारिणि ब्रह्मवादिनी नारियाँ अनेकों थीं। बाद में पाखण्ड काल आया और स्त्रियों के शास्त्राध्ययन पर रोक लगाई गयी, सोचिये यदि उस समय ऐसे ही प्रतिबन्ध रहे होते, तो याज्ञवल्क्य और शंकराचार्य से टक्कर लेने वाली गार्गी और भारती आदि स्त्रियाँ किस प्रकार हो सकती थीं? प्राचीनकाल में अध्ययन की सभी नर-नारियों को समान सुविधा थी। वैदिक काल में कोई भी धार्मिक कार्य नारी की उपस्थिति के बगैर शुरू नहीं होता था। उक्त काल में यज्ञ और धार्मिक प्रार्थना में यज्ञकर्ता या प्रार्थनाकर्ता की पत्नी का होना आवश्यक माना जाता था। नारियों को धर्म और राजनीति में भी पुरुष के समान ही समानता हासिल थी। वे स्वयं वर चुनती थीं, वे वेद पढ़ती थीं और पढ़ाती भी थीं. मैत्रेयी, गार्गी जैसी नारियां इसका उदाहरण हैं। यही नहीं नारियां युद्ध कला में भी पारंगत होकर राजपाट भी संभालती थीं।
नारी संरक्षणीय है
यह ठीक है कि विधाता ने ही नारी को पुरुष की तुलना में कोमल, संवेदनशील बनाया है अतः उसका क्षेत्र पुरुषों से अलग है। इसीलिए वह पुरुष के संरक्षण में जीवन पर्यन्त रहती है :
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्रश्च स्थविरे भारे न स्त्री स्वातन्त्र्य महंति॥
अर्थात् पिता बचपन में रक्षा करता है, पति युवावस्था में रक्षा करता है और पुत्र वृद्धावस्था में नारी का भार वहन करता है- इस प्रकार स्त्री जीवन में कभी स्वतन्त्र नहीं रहती। नारी के सम्बन्ध में यह कथन उसके जीवन की विडम्बना को व्यक्त करता है, किन्तु यह सत्य के अत्यन्त निकट है।
मध्यकाल में आकर नारी की स्थिति शोचनीय हो गई। उसे घर की चहारदीवारी में बन्द होने को विवश होना पड़ा, क्योंकि बाह्य आक्रान्ताओं के कारण उसका सतीत्व खतरे में पड़ गया था। मुसलमानों का शासन स्थापित हो जाने पर देश में पर्दा प्रथा का प्रचलन हुआ और नारी की स्वतन्त्रता पर अकुश लग गया। उसे यथासम्भव घर के कामकाज तक सीमित कर दिया गया, परिणामतः उसका तेज एवं गौरव लुप्त हो गया। वह पुरुष की वासनापूर्ति का साधन मात्र बनकर उपभोग की वस्तु बन गई।
वैदिक युग की नारी धीरे-धीरे अपने देवीय पद से नीचे खिसकर मध्यकाल के सामन्तवादी युग में दुर्बल होकर शोषण का शिकार होने लगी। सामाजिक स्तर पर धर्म के नाम पर स्त्री को मध्यकालीन पुरुर्षों ने स्वयं के ऊपर निर्भर बनाने के लिए उसे सामूहिक रूप से पतित अनधिकारी बताया। नारी के अवचेन में शक्तिहीन होने का अहसास जगाया गया जिसके चलते उसे आसानी से विद्याहीन, साहसहीन कर दिया गया। उसके मूल अधिकारों पर प्रतिबंध लगाकर पुरुष को हर जगह बेहतर बताकर धार्मिक और सामाजिक स्तर पर स्त्री स्वतंत्रता की परिभाषा बुरी तरह छिन्न भिन्न हो गई। एक दौर आया जब स्त्री समाज, देश और धर्म के लिए अनुपयोगी साबित कर दी गई और अपने जीवन यापन, अस्तित्व और आत्मरक्षा के लिए पूर्णत: पुरुष पर निर्भर बना दी गई।
सनातन वैदिक हिंदू धर्म के सिद्धांतों में नारी को सर्वाधिक स्थान प्राप्त है इसलिए पूरी दुनिया नारी सशक्तिकरण का विगुल बजा रही हैं,नारियों के सम्मान मे आरी रही रुकावटें, लोगों की बदलती भावनाएं, लेकिन कहीँ कहीं नये-नये क्षेत्रो में स्त्री के प्रतिभा की पहचान हो रही है। आज ऐसा कोई क्षेत्र नही हैं जहाँ उच्च स्थान पर नारी न कार्यरत हो,नारी ने अब विश्व कल्याण के लिए बडा योगदान दिया है। आप भी नारी के प्रति अपने मन मे सदविचार रखिए आपकी उन्नति और तरक्की तभी हो सकती है,और विश्व का कल्याण भी तभी हो सकता है।