सनातन वैदिक हिंदू पंचांग के अनुसार 28 मार्च को अपराह्न 01.54 बजे भद्रा समाप्त हो जाएगा. इसके पश्चात प्रदोष काल शुरु हो जाएगा, इस काल में होलिका-दहन करने से अभीष्ठ फलों की प्राप्ति होती है. इस वर्ष 2 घंटे 21 मिनट तक ही होलिका दहन का शुभ मुहूर्त है, यानी सायंकाल 06.20 बजे से रात 08:41 बजे के बीच होलिका-दहन सम्पन्न हो जानी चाहिए. इस समय वृद्धि योग होने के कारण यह योग सभी शुभ एवं मंगल कार्यों में वृद्धि प्रदान करेगा.
होलिका दहन की रात दुर्लभ ग्रहों का योग
इस वर्ष 28 मार्च की सुबह से अगले दिन 29 मार्च की प्रातःकाल सूर्योदय तक सर्वार्थ सिद्धि योग बन रहा है, जबकि 28 मार्च की शाम 05.36 बजे से अमृत सिद्धि योग भी निर्मित हो रहा है. इसी दरम्यान होलिका-दहन की रात गुरु और शनि एक ही राशि में मौजूद रहेंगे. ऐसा संयोग सैकड़ों सालों के बाद आने से दुर्लभ हो जाता है. इसके साथ ही होलिका दहन की रात इस बार शुक्र अपनी उच्च राशि में होंगे और सूर्य मित्र राशि में. ग्रहों का यह संयोग भी शुभकारी माना जा रहा है. इन सभी योगों में होलिका पूजन एवं होली की रीति-रिवाजों को निभाना शुभकारी होगा. इस दिन लोग अपने घरों एवं कंपनियों में शुभ कार्य की शुरुआत कर सकते हैं.
पूर्णिमा तिथि समाप्त : 12:17 बजे 29 मार्च 2021
होलिका प्रेम का पर्व है फाल्गुन की रंगभरी एकादशी, वहीं उल्लास और आनंद का त्योहार है होली
होलाष्टक यानी होली से पहले के आठ दिनों में आने वाले तीज-त्योहार धार्मिक रूप से तो खास है ही साथ ही मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक नजरिये से भी महत्वपूर्ण है। इस तरह फाल्गुन महीने का आखिरी हफ्ता हमें सीखाता है कि हमेशा सकारात्मक सोचें चाहे परिस्थितियां कैसी भी हो। इस सप्ताह के व्रत, त्योहारों में भी यही भाव छिपा है। इस दिनों में आने वाले तीज-त्योहार सकारात्मक ऊर्जाओं और खुशियों से भरे होते हैं।
फाल्गुन महीने से आखिरी दिनों में आने वाले तीज-त्योहारों से जुड़ी रोचक बातें
मान्यता है कि इस दिनों शुक्लपक्ष की एकादशी का महत्व भगवान शिव से जुड़ा है। विद्वानों का कहना है कि इसी तिथि पर देवी पार्वती का गौना हुआ था और भगवान शिव, देवी को काशी में लाए थे। साथ ही इस दिन भगवान विष्णु से आंवले के पेड़ की उत्पत्ति हुई थी। इसलिए इस दिन हरि-हर यानी भगवान विष्णु और शिवजी की पूजा करने की परंपरा है।
इस एकादशी को रंगभरी ग्यारस भी कहा जाता है। इस दिन फाग उत्सव भी मनाया जाता है। इस एकादशी से ही भगवान विष्णु के अवतार यानी श्रीकृष्ण के मंदिरों में होली की शुरूआत हो जाती है। इसके बाद से हर दिन अलग-अलग फूलों और अबीर गुलाल से होली खेली जाती है।
रंगभरी एकादशी के दिन ही काशी में भगवान शिव की सवारी निकाली जाती है। इस दिन भगवान शिव को मुर्दों की भस्म से होली खेलाई जाती है। साथ ही सभी शिव भक्त भी भस्म से होली खेलते हैं।
फाल्गुन महीने के आखिरी दिन मनाए जाने वाला होली उत्सव का अत्यंत धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक महत्व है। यह आनंद, प्रेम, सद्भावना का पर्व है। यह भावनाओं के स्तर पर एक दूसरे के रंग में रंग जाने का अवसर है।
लिंगपुराण में होलिका उत्सव को फल्गुनिका के नाम से जाना जाता है। जिसे बालकों की क्रीड़ाओं से पूर्ण और सुख समृद्धि देने वाला बताया गया है।
इसी तरह वराहपुराण में भी इस उत्सव को पटवास विलासीनी यानी चूर्णयुक्त खेल और लोक कल्याण करने वाला बताया गया है।
यह रात्रि तंत्र साधना व लक्ष्मी प्राप्ति के साथ खुद पर किये गए तंत्र मंत्र के प्रतिरक्षण हेतु सबसे उपयुक्त मानी गई है|
तंत्र शास्त्र के अनुसार होली के दिन कुछ खास उपाय करने से मनचाहा काम हो जाता है। तंत्र क्रियाओं की प्रमुख चार रात्रियों में से एक रात ये भी है।
मान्यता है कि होलिका दहन के समय उसकी उठती हुई लौ से कई संकेत मिलते हैं। होलिका की अग्नि की लौ का पूर्व दिशा ओर उठना कल्याणकारी होता है, दक्षिण की ओर पशु पीड़ा, पश्चिम की ओर सामान्य और उत्तर की ओर लौ उठने से बारिश होने की संभावना रहती है।
इस बार होली के दिन देव गुरु बृहस्पति एवं दैत्य गुरु शुक्र दोनों ही अपनी उच्च राशि में रहेंगे। लेकिन देवगुरु बृहस्पति वक्री चल रहे हैं । इससे यह वर्ष आम जनता के लिए कल्याणकारी एवं मंगलकारी रहेगा।
फाल्गुन पूर्णिमा के दिन लक्ष्मी जयंती का पर्व मनाया जाता है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन मां लक्ष्मी की पूजा करने से विशेष फल मिलता है, क्योंकि इस दिन मां लक्ष्मी अवतरित हुई हुई थीं।
पुराणों के अनुसार जब राक्षस और देवताओं के मध्य समुद्र मंथन हुआ था तब मां लक्ष्मी उद्भव हुआ था। जब दिन वह अवतरित हुई उस दिन फाल्गुन मास की पूर्णिमा था। कहा जाता है कि लक्ष्मी जयंती के दिन मां के 1008 नामों का उच्चारण करने से हर मनोकामना पूर्ण होती हैं।
लक्ष्मी जयंती का शुभ मुहूर्त
पूर्णिमा तिथि प्रारंभ: 28 मार्च सुबह 3 बजकर 27 मिनट से
पूर्णिमा तिथि समाप्त: 29 मार्च सुबह 12 बजकर 17 मिनट तक
ऐसे करें लक्ष्मी पूजा
इस दिन ब्रह्न मुहूर्त में उठकर सभी कामों ने निवृत्त होकर स्नान करे और साफ वस्त्र पहनकर मां लक्ष्मी का ध्यान करे। अब मंदिर में आसन बिछाकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ जाए। इसके बाद एक चौकी में लाल रंग का कपड़ा बिछाकर मां लक्ष्मी की मूर्ति श्रीयंत्र या तस्वीर रखें। मां लक्ष्मी जी के मंत्रो का जप करे स्तोत्रपाठ करे।
यह भी है वैज्ञानिक कारण
परंपरा के अनुसार जब लोग जलती होलिका की परिक्रमा करते हैं तो होलिका से निकलता ताप शरीर और आसपास के पर्यावरण में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है। और इस प्रकार यह शरीर तथा पर्यावरण को स्वच्छ करता है।
होली का त्योहार मनाने का एक और वैज्ञानिक कारण है। हालांकि यह होलिका दहन की परंपरा से जुड़ा है। शरद ऋतु की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन का यह काल पर्यावरण और शरीर में बैक्टीरिया की वृद्धि को बढ़ा देता है लेकिन जब होलिका जलाई जाती है तो उससे करीब 145 डिग्री फारेनहाइट तक तापमान बढ़ता है।
होली पर शरीर पर ढाक के फूलों से तैयार किया गया रंगीन पानी, विशुद्ध रूप में अबीर और गुलाल डालने से शरीर पर इसका सुकून देने वाला प्रभाव पड़ता है और यह शरीर को ताजगी प्रदान करता है। जीव वैज्ञानिकों का मानना है कि गुलाल या अबीर शरीर की त्वचा को उत्तेजित करते हैं और पोरों में समा जाते हैं और शरीर के आयन मंडल को मजबूती प्रदान करने के साथ ही स्वास्थ्य को बेहतर करते हैं और उसकी सुदंरता में निखार लाते हैं।
होली के इस पावन पर्व को नवसंवत्सर का आगमन तथा वसंतागम के उपलक्ष्य में किया हुआ यज्ञ भी माना जाता है। वैदिक काल में इस होली के पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता था। पुराणों के अनुसार ऐसी भी मान्यता है कि जब भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से होली का प्रचलन हुआ। होलिका दहन की रात्रि को तंत्र साधना की दृष्टि से हमारे शास्त्रों में महत्वपूर्ण माना गया है |
तपस्य हुआ फागुन, वसंत की अवधि
फाल्गुन का ये दिन आप सबके नाम। हम साल के समापन और चैत्र की ओर अग्रसर हैं। फागुन या फाल्गुन, वह मास जो वीरवर अर्जुन का भी एक नाम था हमारे लिए एक मास ही है। फाल्गुनी नक्षत्र पर इस मास का नाम है।
यह वसन्त की वेला का मास है, ऐसी वेला जिसकी पहचान कोई पंद्रह सौ साल पहले भी आज के रूप में ही की गई थी, खासकर उन शिल्पियों ने जो दशपुर में रंग-बिरंगी रेशम की साडियां, दुकूल बनाते थे और देश ही नहीं, समंदर पार भी अपनी पहचान बनाए हुए थे।
उन्होंने फागुन की ऋतु को बहुत अच्छा माना है, उनके कवि वत्सभट्टि ने लिखा है –
फागुन वही है जिसमें महादेव के विषम लोचनानल से भस्मीभूत, अतएव पवित्र शरीर वाला होकर कामदेव जैसा अनंग देव अशोक वृक्ष, केवडे, सिंदूवार और लहराती हुई अतिमुक्तक लता और मदयन्तिका या मेहंदी के सद्य स्फुटित पुंजीभूत फूलों से अपने बाणों को समृद्ध करता है। ये ही वनस्पतियां इन दिनों अपना विकास करती है।
यह वही फागुन है जिसमें मकरंद पान से मस्त मधुपों की गूंज से नगनों की शाखा अपनी सानी नहीं रखती और नवीन फूलों के विकास रोध्र पेडों में उत्कर्ष और श्री की समृद्धि हो रही है। (कुमारगुप्त का 473 ई. का मंदसौर अभिलेख श्लोक 40-41)
इस अभिलेख में इस मास का नाम ‘तपस्य’ कहा गया है। यही नाम पुराना है, नारद संहिता (3, 81-83) में मासों के नाम में यह शामिल है। ज्योतिष रत्नमाला (1038 ई.) में भी ये पर्याय आए हैं। बारह मासों के बारह सूर्यों में इस मास के सूर्य का नाम सूर्य ही कहा गया है, देवी धात्री और देवता गोविन्द को बताया गया है।
यही मास है जो नवीन वर्ष को निमंत्रित करता है, होलिका दहन के साथ इस मास का समापन होगा।
होलाक
घरों में होली जलाने का क्या उपयोग और औचित्य है? कभी आपने इस पर विचार किया? एक तो अग्निहोत्रियों द्वारा नवीन अग्नि का स्थापन किये जाने का उद्देश्य है और दूसरा चिकित्सा से जुड़ा हुआ है।
यजुर्वेद की १३ शाखाओं के प्रवर्तकों को चरक कहा जाता है। देवों के वैद्य पुनर्वसु (प्राचीन अश्विनीकुमार) ने आयुर्वेद का उपदेश किया था जिसका संग्रह चरक द्वारा किया गया। चरकसंहिता के सूत्रस्थान में पञ्चकर्मों के अन्तर्गत स्वेदन का विस्तृत उल्लेख है। स्वेदन की तेरह विधियों में अन्तिम होलाक स्वेदन विधि है।
स्वेदसाध्याः प्रशामयन्ति गदा वातकफात्मकाः॥
उचित प्रकार से करने पर स्वेदन से शान्त होने वाले , वात-कफ-जन्य रोग शान्त हो जाते हैं।
शुष्काण्यपि हि काष्ठानि स्नेहस्वेदोपपादनैः।
नमयन्ति यथान्यायं किं पुनर्जीवतो नरान्॥
सूखे हुये काठ (बांस आदि लकड़ियाँ) भी स्नेहन और स्वेदन द्वारा मन के अनुसार मोड़ी या सीधी की जा सकती हैं, फिर जीवित (रसयुक्त और कोमल) मनुष्यों को स्नेहन और स्वेदन द्वारा इच्छानुसार परिवर्तित क्यों नहीं किया जा सकता?
अर्थात् निश्चित ही किया जा सकता है।
चरक संहिता में होलाक स्वेद अर्थात् होलाक से पसीना लाने की विधि इस प्रकार बताई गयी है-
करीष (गाय आदि के सूखे उपले) को लम्बी परन्तु गोलाकार (धीतिका) बनाकर जला देना चाहिये । होली पर गोबर से बनाये गये मलरियेँ/बड़कुले/भरभोलिया/बल्ले/बुरबुलिया जिनमें बीच में एक छिद्र इस निमित्त निर्मित किया जाता है कि उनको पोह कर गोल माला बनाई जा सके। घरों में बड़ी छोटी मालायें तैयार कर उन्हें जलाये जाने हेतु बड़े से छोटे के क्रम में एक के ऊपर एक रखते हुये शंक्वाकार धीतिका तैयार की जाती है।
और जब यह धूमरहित (धुंआ निकलना पूरा बन्द होने पर) हो जाय, तब इस पर शय्या आदि बिछाकर वातहर तैल का मर्दन करके, उष्ण वस्त्र ओढ़कर सोने/लेटने से सुखपूर्वक पसीना आता है।
यह सुखकारक होलाक-स्वेद है।
धीतीकान्तु करीषाणां यथोक्तानां प्रदीपयेत् ॥
शयनान्तःप्रमाणेन शय्यामुपरि तत्र च ।
सुदग्धायां विधूमायां यथोक्तामुपकल्पयेत् ॥
स्ववच्छन्नः स्वपँस्तत्राभ्यक्तः स्विद्यति ना सुखम् ।
इस प्रकार घर के बाहर की होलाका के पूजनोपरान्त उसकी अग्नि घर में लाकर ही घर की होलाका जलाई जाती है, यह संवत्सर की नवीन अग्नि की स्थापना भी है, लोकोत्सव भी है तथा आयुष्य से जुड़ा चिकित्सा कर्म भी है।
हे होलि!
भूते भूतिप्रदा भव །།
होलिका
होली या होलिका आनन्द एवं उल्लास का उत्सव है ।
बंगाल को छोड़कर होलिका-दहन सर्वत्र देखा जाता है ।
यह बहुत प्राचीन उत्सव है ।
इसका आरम्भिक शब्दरूप होलाका था । (जैमिनि , १.३.१५-१६ )
जैमिनि एवं शबर के अनुसार होलाका समस्त भारती द्वारा सम्पादित होना चाहिए ।
“राका होलाके” । काठक गृह्य (७३.१ ) इस पर देवपाल की टीका है- ‘होला कर्मविशेष: सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते । तत्र होलाके राका देवता । यास्ते राके सुमतय इत्यादि ।’
होला कर्मविशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है । राका ( पूर्णचन्द्र ) देवता है ।
होलाका उन २० क्रीडाओं में से एक है , जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं । इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र (१.४.४२ )
में भी हुआ है ।
लिंग, वराह पुराण में होली का उल्लेख है ।
हेमाद्रि ( काल ) में बृहद्यम का श्लोक उद्धृत है, जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी कहा गया है ।
हेमाद्रि (व्रत भाग) ने भविष्योत्तर (१३२.१.५१ ) से उद्धरण देकर एक कथा दी है – युधिष्ठिर-कृष्ण संवाद के रूप में । होली के लिए अडाडा नाम आया है । राजा रघु के काल का उल्लेख है ।
ऐसा कहा गया है कि जो व्यक्ति चंदन-लेप के साथ आम्र मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है ।
दक्षिण में होलिका के पाँचवें दिन (रंग-पंचमी ) मनाई जाती है ।
बंगाल में यह उत्सव दोलयात्रा के रूप में गोविन्द की प्रतिमा के साथ मनाते हैं ।
वर्षकृत्यदीपक ( पृ° ३०१ ) ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्वैश्यै: शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभि:| एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा |
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सामूहिक यज्ञ में नवान्न को भूनकर उसका प्रसाद सबको बाँटा जाता है। होली के यज्ञ में यही होता है। जौ,गोहूँ,चना आदि की बालें होली की अग्नि पर भूनते हैं और उसी में से थोडा़- थोडा़ अन्न सभी को बाँट देते हैं। यह पुरोडाश प्रथा है ।
कहीं- कहीं नारियल की गिरी या गोला होली की अग्नि पर भून कर उसका एक- एक छोटा टुकडा़ उपस्थित जनों में बाँट देते हैं। इसे प्रसाद कह सकते हैं। जैसे यज्ञ के घृत को हाथों से मलकर अग्नि पर तपा कर चेहरे में लगाते हैं। जैसे यज्ञ की भस्म को एक अंगुली से मस्तक, कंठ, आदि पर लगते हैं, उसी प्रकार यज्ञाग्नि पर कच्चे जौ भूनकर प्रसाद रूप में बाँटे जा सकते हैं। होली की भस्म उड़ाकर ही इस पावन पर्व का शुभारम्भ होता है।
होली की अग्नि में खेत से लाई गईं बालें भूनने के कृत्य से शेष समस्त अन्न यज्ञावशिष्ट हो जाता है।
गीता ३- १३ एवं ४- ३१ के अनुसार तो यज्ञ से बना हुआ यज्ञावशिष्ट अर्थात् चरु या पुरोडाश खाने वाला सर्व पापों से छूट जाता है तथा सनातन ब्रह्म को प्राप्त करता है।
होली के डांड़ (दण्ड) के पतन, उस पर लगी पताका और होली के धुंए से वायु परीक्षा की जाती थी। इससे राजा और प्रजा के भविष्य का अनुमान लगाया जाता था।
अथ होलिकावातपरीक्षा ।
पूर्वे वायौ होलिकायां प्रजाभूपालयो : सुखम् । पलयनं च दुर्भिक्षं दक्षिणे जायते ध्रुवम् ॥
पश्विमे तृणंसपत्तिरुत्तरे धान्यसंभव : । यदि खे च शिखा वृष्टर्दुंर्ग राजा च संश्रयेत् ॥
नैऋत्यां चैव दुर्भिक्षमैशान्यां तु सुभिक्षकम् । अग्नेर्भीतिरथाग्नेय्यां वायव्यां बाहवोऽजनला : ॥
अथ होलिकानिर्णय : । प्रतिपद्भूत भद्रासु याऽर्चिता होलिका दिवा । संवत्सरं तु तद्राष्ट्रं पुरं दहति सा द्रुतम् ॥
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदातिस्यां भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे ॥
( होली के वायु का फल ) होलीदीपन के समय में पूर्व की वायु चले तो प्रजा , राजा को सुख हो और दक्षिण की वायु हो तो भगदड़ पडे़ , या दुर्भिक्ष पडे़ ॥
पश्चिम की हो तो तृण बहुत हो , उत्तर की चले तो अन्न बहुत हो और आकाश में होली की लपट जावे तो वर्षा हो और राजा को किले का आश्रय लेना चाहिये कारण शत्रु का भय होगा ॥
नैऋत्यकोण की वायु हो तो दुर्भिक्ष पडे , ईशान की हो तो सुभिक्ष हो , अग्निकोण की वायु हो तो अग्नि का भय हो और वायुकोण की वायु हो तो संवत् भर में पवन बहुत चले ॥
यदि होलिका प्रतिपदा चतुर्दशी , भद्राको जलाई जावे तो वर्षभर राज्य को और पुरुष को दग्ध करती है ॥
फाल्गुन सुदि पूर्णिमा प्रदोषकालव्यापिनी लेनी चाहिये उस समय में भद्रा हो तो भद्रा के मुख की घडी त्याग के प्रदोष में ही होली पूजनी जलानी शुभ है ॥
गोस्वामी तुलसीदास जी की गीतावली में वर्णित होलिकोत्सव :
खेलत बसंत राजाधिराज। देखत नभ कौतुक सुर समाज।
सोहे सखा अनुज रघुनाथ साथ। झोलिन्ह अबीर पिचकारी हाथ।
बाजहिं मृदंग, डफ ताल बेनु। छिरके सुगंध भरे मलय रेनुं।
लिए छरी बेंत सोंधे विभाग। चांचहि, झूमक कहें सरस राग।
नूपुर किंकिनि धुनिं अति सोहाइ। ललना-गन जेहि तेहि धरइ धाइ।
लांचन आजहु फागुआ मनाइ। छांड़हि नचाइ, हा-हा कराइ।
चढ़े खरनि विदूसक स्वांग साजि। करें कुट निपट गई लाज भाजि।
नर-नारि परस्पर गारि देत। सुनि हंसत राम भइन समेत।
बरसत प्रसून वर-विवुध वृंद जय-जय दिनकर कुमुकचंद।
ब्रह्मादि प्रसंसत अवध-वास। गावत कल कीरत तुलसिदास।
सौभाग्याय स्त्रीणां प्रातरनुष्ठीयते । तत्र होलाके राका देवता । यास्ते राके सुमतय इत्यादि ।’
होला कर्मविशेष है जो स्त्रियों के सौभाग्य के लिए सम्पादित होता है । राका ( पूर्णचन्द्र ) देवता है ।
होलाका उन २० क्रीडाओं में से एक है , जो सम्पूर्ण भारत में प्रचलित हैं । इसका उल्लेख वात्स्यायन के कामसूत्र (१.४.४२ )
में भी हुआ है ।
लिंग, वराह पुराण में होली का उल्लेख है ।
हेमाद्रि ( काल ) में बृहद्यम का श्लोक उद्धृत है, जिसमें होलिका-पूर्णिमा को हुताशनी कहा गया है ।
हेमाद्रि (व्रत भाग) ने भविष्योत्तर (१३२.१.५१ ) से उद्धरण देकर एक कथा दी है – युधिष्ठिर-कृष्ण संवाद के रूप में । होली के लिए अडाडा नाम आया है । राजा रघु के काल का उल्लेख है ।
ऐसा कहा गया है कि जो व्यक्ति चंदन-लेप के साथ आम्र मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है ।
दक्षिण में होलिका के पाँचवें दिन (रंग-पंचमी ) मनाई जाती है ।
बंगाल में यह उत्सव दोलयात्रा के रूप में गोविन्द की प्रतिमा के साथ मनाते हैं ।
वर्षकृत्यदीपक ( पृ° ३०१ ) ब्राह्मणै: क्षत्रियैर्वैश्यै: शूद्रैश्चान्यैश्च जातिभि:। एकीभूय प्रकर्तव्या क्रीडा या फाल्गुने सदा।
सामूहिक यज्ञ में नवान्न को भूनकर उसका प्रसाद सबको बाँटा जाता है। होली के यज्ञ में यही होता है। जौ,गोहूँ,चना आदि की बालें होली की अग्नि पर भूनते हैं और उसी में से थोडा़- थोडा़ अन्न सभी को बाँट देते हैं। यह पुरोडाश प्रथा है ।
कहीं- कहीं नारियल की गिरी या गोला होली की अग्नि पर भून कर उसका एक- एक छोटा टुकडा़ उपस्थित जनों में बाँट देते हैं। इसे प्रसाद कह सकते हैं। जैसे यज्ञ के घृत को हाथों से मलकर अग्नि पर तपा कर चेहरे में लगाते हैं। जैसे यज्ञ की भस्म को एक अंगुली से मस्तक, कंठ, आदि पर लगते हैं, उसी प्रकार यज्ञाग्नि पर कच्चे जौ भूनकर प्रसाद रूप में बाँटे जा सकते हैं। होली की भस्म उड़ाकर ही इस पावन पर्व का शुभारम्भ होता है।
होली की अग्नि में खेत से लाई गईं बालें भूनने के कृत्य से शेष समस्त अन्न यज्ञावशिष्ट हो जाता है।
गीता ३- १३ एवं ४- ३१ के अनुसार तो यज्ञ से बना हुआ यज्ञावशिष्ट अर्थात् चरु या पुरोडाश खाने वाला सर्व पापों से छूट जाता है तथा सनातन ब्रह्म को प्राप्त करता है।
होली के डांड़ (दण्ड) के पतन, उस पर लगी पताका और होली के धुंए से वायु परीक्षा की जाती थी। इससे राजा और प्रजा के भविष्य का अनुमान लगाया जाता था।
अथ होलिकावातपरीक्षा ।
पूर्वे वायौ होलिकायां प्रजाभूपालयो : सुखम् । पलयनं च दुर्भिक्षं दक्षिणे जायते ध्रुवम् ॥
पश्विमे तृणंसपत्तिरुत्तरे धान्यसंभव : । यदि खे च शिखा वृष्टर्दुंर्ग राजा च संश्रयेत् ॥
नैऋत्यां चैव दुर्भिक्षमैशान्यां तु सुभिक्षकम् । अग्नेर्भीतिरथाग्नेय्यां वायव्यां बाहवोऽजनला : ॥
अथ होलिकानिर्णय : । प्रतिपद्भूत भद्रासु याऽर्चिता होलिका दिवा । संवत्सरं तु तद्राष्ट्रं पुरं दहति सा द्रुतम् ॥
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदातिस्यां भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे ॥
( होली के वायु का फल ) होलीदीपन के समय में पूर्व की वायु चले तो प्रजा , राजा को सुख हो और दक्षिण की वायु हो तो भगदड़ पडे़ , या दुर्भिक्ष पडे़ ॥
पश्चिम की हो तो तृण बहुत हो , उत्तर की चले तो अन्न बहुत हो और आकाश में होली की लपट जावे तो वर्षा हो और राजा को किले का आश्रय लेना चाहिये कारण शत्रु का भय होगा ॥
नैऋत्यकोण की वायु हो तो दुर्भिक्ष पडे , ईशान की हो तो सुभिक्ष हो , अग्निकोण की वायु हो तो अग्नि का भय हो और वायुकोण की वायु हो तो संवत् भर में पवन बहुत चले ॥
यदि होलिका प्रतिपदा चतुर्दशी , भद्राको जलाई जावे तो वर्षभर राज्य को और पुरुष को दग्ध करती है ॥
फाल्गुन सुदि पूर्णिमा प्रदोषकालव्यापिनी लेनी चाहिये उस समय में भद्रा हो तो भद्रा के मुख की घडी त्याग के प्रदोष में ही होली पूजनी जलानी शुभ है ॥
गोस्वामी तुलसीदास जी की गीतावली में वर्णित होलिकोत्सव :
खेलत बसंत राजाधिराज। देखत नभ कौतुक सुर समाज।
सोहे सखा अनुज रघुनाथ साथ। झोलिन्ह अबीर पिचकारी हाथ।
बाजहिं मृदंग, डफ ताल बेनु। छिरके सुगंध भरे मलय रेनुं।
लिए छरी बेंत सोंधे विभाग। चांचहि, झूमक कहें सरस राग।
नूपुर किंकिनि धुनिं अति सोहाइ। ललना-गन जेहि तेहि धरइ धाइ।
लांचन आजहु फागुआ मनाइ। छांड़हि नचाइ, हा-हा कराइ।
चढ़े खरनि विदूसक स्वांग साजि। करें कुट निपट गई लाज भाजि।
नर-नारि परस्पर गारि देत। सुनि हंसत राम भइन समेत।
बरसत प्रसून वर-विवुध वृंद जय-जय दिनकर कुमुकचंद।
ब्रह्मादि प्रसंसत अवध-वास। गावत कल कीरत तुलसिदास।
सावधानी
होलिका दहन की रात्रि तंत्र साधना की रात्रि होने के कारण इस रात्रि आपको कुछ सावधानियां रखनी चाहियें
सफेद खाद्य पदार्थो के सेवन से बचें : होलिका दहन वाले दिन टोने-टोटके के लिए सफेद खाद्य पदार्थों का उपयोग किया जाता है। इसलिए इस दिन सफेद खाद्य पदार्थों के सेवन से बचना चाहिये।
सिर को ढक कर रखें : उतार और टोटके का प्रयोग सिर पर जल्दी होता है, इसलिए सिर को टोपी आदि से ढके रहें।
कपड़ों का विशेष ध्यान रखें : टोने-टोटके में व्यक्ति के कपड़ों का प्रयोग किया जाता है, इसलिए अपने कपड़ों का ध्यान रखें।
विशेष : होली पर पूरे दिन अपनी जेब में काले कपड़े में बांधकर काले तिल रखें। रात को जलती होली में उन्हें डाल दें। यदि पहले से ही कोई टोटका होगा तो वह भी खत्म हो जाएगा।
कोविड नियमो का पालन अनिवार्य करे।
सर्वे भवंतु सुखिनः
रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद