नवरात्र का पर्व शुरू होते ही घर-घर में भगवती दुर्गा की आराधना होने लगती है। दुर्गा-पूजा के पंडालों में शक्ति का अद्भुत श्रृंगार-पूजन देखने को मिलता है।
वास्तव में यदि देखा जाय तो पराम्बा ही विश्व का आधार है। वही मूलाधार में ‘भू’ रूप में, अधिष्ठान में ‘भुवः’ रूप में, मणिपूरक में ‘स्व:’ रूप में, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा में ‘महः’, ‘जनः’ ‘तपः’ रूप में और सहस्त्रार में ‘सत्य’ रूप में विद्यमान है।
साधकों का मत है कि शक्ति का कोई स्वरूप चर्मचक्षुओं से ग्रहण नहीं किया जा सकता। इसके लिए साधना के साथ जुड़ना आवश्यक है। शक्ति ही ब्रह्म का विशिष्ट स्वरूप या गुण है। समस्त सृष्टि के सृजन, पालन और संहार के साथ-साथ जो भी दृष्टिगत है, उसमें उसी की शक्ति कार्य कर रही है। यहां तक कि हमारे वर्णाक्षर भी उसी शक्ति के प्रत्यक्षीकरण को प्रतिबिम्बित करते हैं।
शिव के डमरू से 14 माहेश्वर सूत्र नादब्रह्म के रूप में हमें प्राप्त हुए हैं जो निम्न हैं–अइउण, ऋलृक, एओड., ऐऔच, हयवरट, लण, यंमडणनम, झभय, घढधष जबगड़दश, खफ़छठथ, चटतबकपय, शषसर, हल।
नाद से प्रस्फुटित स्वरशक्ति यन्त्र का सृजन कर हमारी देवनागरी प्रतिलिपि की वर्णमाला को प्रकट करते हैं। इस वर्णमाला की रेखाकृति भी विशिष्ट प्रकार की है। ‘अ’ से लेकर ‘ज्ञ’ तक 52 मात्रिका (अक्षर) हैं। उनकी रेखाकृति पर हमें विचार करना चाहिए। आखिर यह ऐसी क्यों है ? ‘ॐ’ को ओम क्यों नहीं लिखते ? शायद इसलिए कि इन सभी अक्षरों में निहित शक्तियां ही इनका निर्धारण करती हैं। इस वर्णमाला का उच्चारण करने में मूलाधार चक्र से लेकर ब्रह्मरंध्र अर्थात सहस्त्रार चक्र तक वायु का आघात कहाँ-कहाँ और किस प्रकार होता है–इन सभी दृष्टियों से विचार कर हमारे मनीषियों, ऋषियों ने भलीभांति अनुसंधान कर वर्णमाला की रेखाकृतियाँ निश्चित की हैं। भिन्न-भिन्न ध्वनि ‘अ’ से लेकर ‘ज्ञ’ तक के अक्षरों में भिन्न-भिन्न शक्तियां निहित हैं। प्रत्येक अक्षर की अपनी स्वतंत्र शक्ति होती है। अतः भिन्न-भिन्न अक्षरों के मेल से अलग-अलग शक्तियां उत्पन्न होती हैं। अतः किस शक्ति को उत्पन्न करने के लिए किन अक्षरों का मिलान किया जाय–यह दुर्लभ खोज हमारे ऋषि-मुनियों की दिव्य विलक्षण देन है। इन्हें ही ‘मन्त्र’ कहते हैं। ध्वनि के विशिष्ट कम्पन वाले वर्ण-संयोजन को मन्त्र की संज्ञा दी गयी है। मन्त्र के उच्चारण के समय जो वर्ण की झंकार उत्पन्न होती है, उससे विशेष शक्ति का प्रस्फुटन होता है। सभी देवतागण अपने-अपने मंत्रों की शक्ति के अधीन रहते हैं।
माँ चन्द्रघण्टा
देवी भगवती का तीसरा विग्रह चन्द्रघण्टा का है। यह स्वरुप भगवान शंकर की शक्ति का है। शिखर पर चंद्र और नाद उनकी शक्ति है। देवी को नाद प्रिय है। सृष्टि की संरचना के बाद स्वर, व्यंजना, रूप, रस, गन्ध और संगीत का प्रादुर्भाव हुआ। यही शक्ति वाग्देवी कहलायी। देवासुर संग्राम में देवी भगवती ने महिसासुर से युद्ध नाद से ही लड़ा। श्रीदुर्गा सप्तशती में नाद अर्थात् स्वरविज्ञान को देवी-तत्व माना गया है। दशभुजी स्वर्गस्वरूपा माँ चन्द्रघण्टा शान्ति की प्रतीक हैं। किन्तु युद्ध के लिए उद्यत रहती हैं। असुरों का संहार करने के लिए देवी भगवती ने अपने शस्त्रों के साथ नाद का भी प्रयोग किया था। अपने इस चरित्र के माध्यम से भगवती कहती हैं कि मित्र या शत्रु कभी स्थाई नहीं रहते। हमारे मन, वचन और कर्म ही मित्र और शत्रु बनाते हैं। यही तीनों चीजें हमारे दुःख और तनाव के कारण भी होती हैं। अतः चन्द्रघण्टा देवी मन, वचन और कर्म को साधने की शिक्षा देती हैं।
इनकी उपासना मूल मन्त्र तो यही है कि हम मन, वचन और कर्म को सही दिशा में ले जाएँ। करुणा, क्षमा, शीतलता, शान्ति की शिक्षा देते हुए देवी चन्द्रघण्टा भक्तों को बैभव, वीरता एवं निर्भीकता प्रदान करती हैं। संगीत इनको प्रिय है। देवी पुराण में ऐसा माना गया है कि इनकी कृपा से ही जगत को स्वर और नाद प्राप्त हुआ।
चन्द्रघण्टा देवी सरस्वती का स्वरुप हैं। छात्रों, संगीत, स्वरों और साहित्य में रूचि रखने वाले को केवल एक बीज मन्त्र से आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। ब्राह्म मुहूर्त में या प्रातः 9 बजे से पहले मानसिक जप करने से फल की प्राप्ति होती है। देवी का पूजन हल्दी से करें। पीले पुष्प चढ़ायें। श्रीदुर्गा सप्तशती का एक से तीन तक अध्याय पढ़ें। मन्त्र और ध्यान निम्न है–
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता।।