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चातुर्मास एक जुलाई से प्रारम्भ, विष्णु करेंगे विश्राम, सृष्टि का पांच माह कार्य सम्भालेंगे शिव

सिद्धि योग और तुला राशि के चंद्रमा के साथ प्रारंभ हो रहा है सृष्टि का कार्यभार संभालेंगे भगवान शिव, चतुर्मास,1जुलाई से चातुर्मास प्रारम्भ, पांच माह का होगा चातुर्मास श्राद्ध पक्ष के बाद 20 से 25 दिन देरी से आएंगे सारे त्योहार, 160 साल बाद लीप ईयर और आश्विन अधिकमास एक ही साल में दुर्लभ सयोंग अधिक मास पुरुषोत्तम भी रहेगा

हरिशयनी एकादशी, पद्मा एकादशी, पद्मनाभा एकादशी, देवशयनी एकादशी के नाम से पुकारी जाने वाली एकादशी इस बार 01 जुलाई को पड़ रहा है. इस दिन से गृहस्थ लोगों के लिए चातुर्मास नियम लग लग जाते हैं।

तीन साल बाद नव संवत्सर 2077 में एक माह अधिमास का भी होगा। इसे पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। संवत्सर के अनुसार इसमें 12 की बजाय 13 महीने होंगे। यह संयोग हर तीन साल में एक बार बनता है। विक्रम संवत्सर 2077 की शुरुआत 25 मार्च से हुई हैं। जो आनंद नामकीय संवत्सर रहेगा। इसके राजा बुध व मंत्री चंद्र होंगे। आश्विन माह 3 सितंबर से 31 अक्टूबर तक रहेगा। यानि इसकी अवधि करीब 2 माह होगी। इन 2 माह में बीच की अवधि वाला माह का समय अधिमास रहेगा। इसके बाद जितने भी त्याेहार आएंगे। वे 10 से 15 दिन या इससे कुछ अधिक विलंब से आएंगे। दीपावली इस बार 14 नवंबर को होगी। साथ ही देवउठनी एकादशी 25 नवंबर को आएगी। सवंत्सर 2077 में अधिमास की 2 तिथियां शुक्ल पक्ष की तृतीया का क्षय 19 अक्टूबर को व कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का क्षय 15 अक्टूबर है। इस कारण 3 सितंबर को श्राद्ध पक्ष के एक माह बाद 17 अक्टूबर को शारदीय नवरात्र आरंभ होंगे। श्राद्धपक्ष की सर्व पितृ अमावस्या के अगले दिन नवरात्र शुरु हो जाते हैं, लेकिन अमवस्या व नवरात्र के बीच पूरे एक माह का अंतर होगा। 3 सितंबर कृष्ण पक्ष एक से आश्विन माह शुरु होगा, जो 31 अक्टूबर तक रहेगा।

1 जुलाई के बाद 5 माह तक सोएंगे देव:- इस वर्ष अधिकमास होने से देव भी पांच महीने सोएंगे। पंचांग के अनुसार देवशयनी एकादशी 1 जुलाई को मनाई जाएगी। इसके बाद शादी-विवाह व शुभ कार्यों के कोई भी मुहूर्त नहीं होंगे। इस बीच अधिकमास शुरु होगा। श्राद्ध पक्ष के एक महीने बाद नवरात्र शुरु होंगे। दीपावली के बाद 25 नवंबर को देवउठनी एकादशी मनाई जाएगी।

कब होता है अधिकमास, वर्ष 2018 में भाद्रपद में आया था

सौरमास 365 दिन का व जबकि चंद्रमास 354 दिन का होता है। इससे हर साल 11 दिन का अंतर आता है।, जो 3 साल में बढ़कर एक माह से कुछ अधिक हो जाता है। यह 32 माह 16 दिन के अंतराल से हर तीसरे साल में होता है। वर्ष 2018 में भाद्रपद में था तो अब आश्विन में हो रहा है। इस अंतर को पाटने के लिए अधिमास की व्यवस्था की गई है। सूर्य के बारह संक्रांति के आधार पर ही वर्ष में 12 माह होते हैं।

जानें कब है एकादशी ?

  • एकादशी तिथि प्रारम्भ- जून 30, 2020 को 07:49 बजे सायं
  • एकादशी तिथि समाप्त- जुलाई 01, 2020 को 05:29 बजे सायं
  • 2 जुलाई को, पारण (व्रत तोड़ने का) समय- 05:24 प्रातः से प्रातः08:13 बजे
  • पारण तिथि के दिन द्वादशी समाप्त होने का समय- 03:16 बजे सायं

देवशयनी एकादशी व्रत को करने से व्यक्ति को अपने चित, इंद्रियों, आहार और व्यवहार पर संयम रखना होता है. एकादशी व्रत का उपवास व्यक्ति को अर्थ-काम से ऊपर उठकर मोक्ष और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

इस दिन से भगवान विष्णु लगभग चार महीने के लिए योग निद्रा में चले जाते हैं। उनके जाने के साथ ही शादी विवाह जैसे शुभ कार्य बंद हो जाते हैं। इस बार मलमास की वजह से पांच महीने शादियां बंद रहेंगी। सूर्योदय से लेकर दिन के शाम 4:25 बजे तक एकादशी का मान होगा। इस दिन व्रत करने से पापों का नाश हो जाता है । मन -विचार शुद्ध एवं विकार रहित होता है। इस दिन भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा करना श्रेयस्कर होता है। पीली वस्तुओं का भोग लगाने की परंपरा है। कमल पुष्प से मां का आह्वान करने से लक्ष्मी जी की विशेष कृपा मिलती है। वहीं 13 जून से विवाह सहित चल रहे अन्य मांगलिक कार्य एक जुलाई से फिर बंद हो जाएंगे।

25 नवंबर तक बंद रहने के बाद 26 नवंबर से एक बार फिर शादियां शुरू होंगी और 11 दिसंबर तक चलेंगी। 16 दिसंबर से सूर्य के धनु राशि में प्रवेश करने से खरमास लग जाएगा। पांच महीने का होगा चातुर्मास दो जुलाई से चातुर्मास शुरू होगा और इस बार सह 27 नंबर तक रहेगा। आश्विन महीने में अधिक मास ( मलमास) लग रहा है जो 18 सितंबर 16 अक्टूबर तक रहेगा । इस वजह से चार महीने के बजाय पांच महीने का यह मास होगा।

चार विशेष महीने होते हैं जिनमे उपवास, व्रत और जप ताप का विशेष महत्व होता है. वे महीने हैं – सावन, भाद्रपद,आश्विन और कार्तिक. देव शयन एकादशी से ही चातुर्मास की शुरुआत होती है जो कार्तिक के देव प्रबोधिनी एकादशी तक चलती है. इस समय में श्री हरि विष्णु योगनिद्रा में लीन रहते हैं इसलिए किसी भी शुभ कार्य को करने की मनाही होती है. इसी अवधि में ही आषाढ़ के महीने में भगवान विष्णु ने वामन रूप में अवतार लिया था और राजा बलि से तीन पग में सारी सृष्टी दान में ले ली थी. उन्होंने राजा बलि को उसके पाताल लोक की रक्षा करने का वचन दिया था. फलस्वरूप श्री हरि अपने समस्त स्वरूपों से राजा बलि के राज्य की पहरेदारी करते हैं. इस अवस्था में कहा जाता है कि भगवान विष्णु निद्रा में चले जाते हैं.

चातुर्मास में किस किस देवी देवता की उपासना की जाती है?

आषाढ़ के महीने में अंतिम समय में भगवान वामन और गुरु पूजा का विशेष महत्व होता है
सावन के महीने में भगवान शिव की उपासना होती है और उनकी कृपा सरलता से मिलती है
भाद्रपद में भगवान कृष्ण का जन्म होता है और उनकी कृपा बरसती है
आश्विन के महीने में देवी और शक्ति की उपासना की जाती है
कार्तिक के महीने में पुनः भगवान विष्णु का जागरण होता है और सृष्टि में मंगल कार्य आरम्भ हो जाते हैं

आषाढ़ मास से प्रारंभ होने वाले चतुर्मास में कार्तिक तक इस बार 5 माह रहेंगे पूर्णिमा से श्रावण प्रारंभ होगा

श्रावण

दूसरा महीना श्रावण का होता है, यह महीना बहुत ही पावन महीना होता है, इसमें भगवान शिव की पूजा अर्चना की जाती हैं. इस माह में कई बड़े त्यौहार मनाये जाते हैं जिनमें रक्षाबंधन, नाग पंचमी, हरियाली तीज एवं अमावस्या, श्रावण सोमवार आदि विशेष रूप से शामिल हैं. रक्षाबंधन का त्यौहार भाई बहनों का त्यौहार होता है. बहनें अपने भाइयों को राखी बांधती हैं. वहीं नाग पंचमी के दिन नाग देवता की पूजा की जाती है. हरियाली तीज में सुहागन औरतें भगवान् शिव एवं देवी पार्वती की पूजा करती है एवं व्रत भी रखती है. इस माह में श्रावण सोमवार का महत्व बहुत अधिक है. इस माह में वातावरण बहुत ही हराभरा रहता है।

भाद्रपद

तीसरा महीना भादों अर्थात भाद्रपद का होता हैं. इसमें भी कई बड़े एवं महत्वपूर्ण त्यौहार मनायें जाते हैं जिनमें कजरी तीज, हर छठ, जन्माष्टमी, गोगा नवमी, जाया अजया एकदशी, हरतालिका तीज, गणेश चतुर्थी, ऋषि पंचमी, डोल ग्यारस, अन्नत चतुर्दशी, पितृ श्राद्ध आदि शामिल हैं. हर त्यौहार का हिन्दू धर्म में अपना एक अलग महत्व होता है, और लोग इसे बड़े चौ से मनाते हैं. इस तरह यह माह भी हिन्दू रीती रिवाजों से भरा पूरा रहता हैं।

आश्विन माह

चौथा महीना आश्विन का होता हैं. अश्विन माह में पितृ मोक्ष अमावस्या, नव दुर्गा व्रत, दशहरा एवं शरद पूर्णिमा जैसे महत्वपूर्ण एवं बड़े त्यौहार आते हैं. इस माह को कुंवार का महीना भी कहा जाता हैं. नव दुर्गा में लोग 9 दिनों का व्रत रखते हैं इसके बाद दसवें दिन दशहरा का त्यौहार बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं।

कार्तिक माह

यह चातुर्मास का अंतिम महीना होता है, जिसके 15 दिन चौमास में शामिल होते हैं. इस महीने में दीपावली के पांच दिन, गोपा अष्टमी, आंवला नवमी, ग्यारस खोपड़ी प्रमोदिनी ग्यारस अथवा देव उठनी ग्यारस जैसे त्यौहार आते हैं. इस माह में लोग अपने घर में साफ सफाई करते हैं, क्योकि इस माह में आने वाले दीपावली के त्यौहार का हमारे भारत देश में बहुत अधिक महत्व है. इसे लोग बहुत ही धूम धाम से मनाते हैं।

पुरुषोत्तम मास, अधिकमास य मल मास

अधिक मास’ कब व कैसे होता है?

पंचांग गणना के अनुसार एक सौर वर्ष में 365 दिन, 15 घटी, 31 पल व 30 विपल होते हैं, जबकि चन्द्र वर्ष में 354 दिन, 22 घटी, 1 पल व 23 विपल होते हैं। सूर्य व चन्द्र दोनों वर्षों में 10 दिन, 53 घटी, 30 पल एवं 7 विपल का अंतर प्रत्येक वर्ष में रहता है। इसी अंतर को समायोजित करने हेतु ‘अधिक मास’ की व्यवस्था होती है।

सूर्य संक्रान्ति के आधार पर अधिक मास का निर्णय

‘अधिक मास’ प्रत्येक तीसरे वर्ष होता है। ‘अधिक मास’ फाल्गुन से कार्तिक मास के मध्य होता है। जिस वर्ष ‘अधिक मास’ होता है उस वर्ष में 12 के स्थान पर 13 महीने होते हैं। ‘अधिक मास’ के माह का निर्णय सूर्य संक्रान्ति के आधार पर किया जाता है। जिस माह सूर्य संक्रान्ति नहीं होती वह मास ‘अधिक मास’ कहलाता है।

अधिकमास को पुरुषोत्तम मास भी कहते हैं

सूर्य संक्रन्ति नही होने से, मलिन मास होने की वजह से कोई भी देवता इस मास का स्वामी होना नहीं चाहता था, तब मलमास ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। मलमास की प्रार्थना सुनकर विष्णुजी ने इसे अपना श्रेष्ठ नाम पुरषोत्तम प्रदान किया। श्रीहरि ने मलमास को वरदान दिया कि जो इस माह में भागवत कथा श्रवण, मनन, भगवान शिव का पूजन, धार्मिक अनुष्ठान, दान करेगा उसे अक्षय पुण्य प्राप्त होगा।

17 अक्टूबर से नवरात्रि शुरू होगी. इस तरह श्राद्ध और नवरात्रि के बीच इस साल एक महीने का समय रहेगा. दशहरा 26 अक्टूबर को और दीपावली 14 नवंबर को मनाई जाएगी. 25 नवंबर को देवउठनी एकादशी रहेगी और इस दिन चातुर्मास खत्म हो जाएगा।

चातुर्मास में तप और ध्यान करने का है विशेष महत्व

चार्तुमास में संत एक ही स्थान पर रुककर तप और ध्यान करते हैं. चातुर्मास में यात्रा करने से यह बचते हैं, क्योंकि ये वर्षा ऋतु का समय रहता है, इस दौरान नदी-नाले उफान पर होते है तथा कई छोटे-छोटे कीट उत्पन्न होते हैं. इस समय में विहार करने से इन छोटे-छोटे कीटों को नुकसान होने की संभावना रहती है. इसी वजह से चातुर्मास में संत एक जगह रुककर तप करते हैं. चातुर्मास में भगवान विष्णु विश्राम करते हैं और सृष्टि का संचालन भगवान शिव करते हैं. देवउठनी एकादशी के बाद विष्णुजी फिर से सृष्टि का भार संभाल लेते हैं।

पौराणिक आधार

अधिक मास के लिए पुराणों में बड़ी ही सुंदर कथा सुनने को मिलती है। यह कथा दैत्यराज हिरण्यकश्यप के वध से जुड़ी है। पुराणों के अनुसार दैत्यराज हिरण्यकश्यप ने एक बार ब्रह्मा जी को अपने कठोर तप से प्रसन्न कर लिया और उनसे अमरता का वरदान मांगा। चुंकि अमरता का वरदान देना निषिद्ध है, इसीलिए ब्रह्मा जी ने उसे कोई भी अन्य वर मांगने को कहा।

तब हिरण्यकश्यप ने वर मांगा कि उसे संसार का कोई नर, नारी, पशु, देवता या असुर मार ना सके। वह वर्ष के 12 महीनों में मृत्यु को प्राप्त ना हो। जब वह मरे, तो ना दिन का समय हो, ना रात का। वह ना किसी अस्त्र से मरे, ना किसी शस्त्र से। उसे ना घर में मारा जा सके, ना ही घर से बाहर मारा जा सके। इस वरदान के मिलते ही हिरण्यकश्यप स्वयं को अमर मानने लगा और उसने खुद को भगवान घोषित कर दिया। समय आने पर भगवान विष्णु ने अधिक मास में नरसिंह अवतार यानि आधा पुरुष और आधे शेर के रूप में प्रकट होकर, शाम के समय, देहरी के नीचे अपने नाखूनों से हिरण्यकश्यप का सीना चीन कर उसे मृत्यु के द्वार भेज दिया।  

इसका महत्व क्यों है?

सनातन वैदिक वांग्मय के अनुसार प्रत्येक जीव पंचमहाभूतों से मिलकर बना है। इन पंचमहाभूतों में जल, अग्नि, आकाश, वायु और पृथ्वी सम्मिलित हैं। अपनी प्रकृति के अनुरूप ही ये पांचों तत्व प्रत्येक जीव की प्रकृति न्यूनाधिक रूप से निश्चित करते हैं। अधिकमास में समस्त धार्मिक कृत्यों, चिंतन- मनन, ध्यान, योग आदि के माध्यम से साधक अपने शरीर में समाहित इन पांचों तत्वों में संतुलन स्थापित करने का प्रयास करता है। इस पूरे मास में अपने धार्मिक और आध्यात्मिक प्रयासों से प्रत्येक व्यक्ति अपनी भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति और निर्मलता के लिए उद्यत होता है। इस तरह अधिकमास के दौरान किए गए प्रयासों से व्यक्ति हर तीन साल में स्वयं को बाहर से स्वच्छ कर परम निर्मलता को प्राप्त कर नई उर्जा से भर जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस दौरान किए गए प्रयासों से समस्त कुंडली दोषों का भी निराकरण हो जाता है।

स्मार्तगणों ने इस अधिक मास को ‘मलमास’ कहकर त्याग दिया है। उन्होंने इसे मलिम्लुच मास , चोर मास अथवा मलिन-मास आदि नाम देकर घृणित बताया है। स्मार्त लोग इस महीने कोई भी शुभ कार्य नहीं करते ।

परमार्थ – राज्य में अधिमास को हरि-भजनोपयोगी, सर्वाधिक श्रेष्ठ मास व पुरूषोत्तम मास बताया है क्योंकि ये मास जाकर भगवान् पुरूषोत्तम श्रीकृष्ण जी के शरणागत हो गया था , उसी से इसकी महिमा बढ़ी ।
इस पुरुषोत्तम मास में जो भक्तिपुर्वक भगवान् श्रीकृष्ण जी का अर्चन करते हैं, वे धन-पुत्र आदि का सुख भोगकर अंत में गोलोकवासी होते हैं।
पौराणिक प्रसंग के अनुसार द्रौपदी पुर्वजन्म में ‘मेधा’-ऋषि की कन्या थीं। दुर्वासा मुनि के द्वारा ‘पुरुषोत्तम-माहात्म्य’ सुनकर भी उन्होंने इस मास की उपेक्षा की थी, इसलि‌ए उस जन्म में कष्ट तथा द्रौपदी-जन्म में पाँच पतियों के अधीन हु‌ई थीं।
श्रीकृष्ण के उपदेश से पाण्डवों ने द्रौपदी के साथ पुरुषोत्तम-मास-व्रत पालन कर वनवास के सारे दुःखों से पार पाया था।
इस मास में दूसरों के बिस्तर पर मत सोयें तथा अनित्य विषयों पर चर्चा ना करें परनिन्दा सम्बन्धी बातचीत न करें। दूसरों का जूठा भोजन मत करें ।

गोवर्द्धनधरं वन्दे गोपालं गोप रूपिणं ।
गोकुलोत्सवमीशानं गोविन्दं गोपिकाप्रियम् ।
इस मंत्र को कम से कम 12 बार जपना चाहिए ।
इसके इलावा प्रतिदिन श्रीजगन्नाथ-अष्टकम् एवं श्रीचौराग्रगण्य-अष्टकम्भी अवश्य गाना या पढ़ना चाहिए ।
इस महीने में शहद , रा‌ई-सरसों-तिल तथा उनका तेल भी भोजन में प्रयोग नहीं होगा ।
पुरुषोत्तम मास में देवता, वेद, गुरू, गाय, व्रती, नारी, राजा और महापुरुषों की निंदा नहीं करनी चाहिए ।
जन्तु-जानवरों के अंगों से उत्पन्न चूर्ण, फलों में जम्बीर अर्थात्‌ एक विशेष प्रकार का नींबू, अनाज में मसूर व उड़द की दाल राजमा ,बासी अन्न, बकरी, गाय तथा भैंस के दूध के अलावा अन्य सभी दूध मना हैं ।
भक्त लोग ताँबे के पात्र में रखा घी, दूध , चमड़े में रखा जल, मशरूम, गाजर, बैंगन, लौकी, सजिना फली —इन सब का वर्जन करेंगे।
“ब्रह्मचर्यमधः शैयां पत्रावल्यांच भोजनम्‌।………. प्रकुर्यात पुरुषोत्तमे॥
इस महीने में ब्रह्मचर्य पालन, भूमि पर शयन तथा पत्तल में भोजन करना उचित है।
”श्रीमद्‌भागवतं भक्त्या श्रोतव्यं पुरुषोत्तमे॥
तत्पुण्यं वचसा वक्तुं विधाता हि न शक्नुयात्‌।
पुरुषोत्तम-मास में, भक्तिपूर्वक श्रीमद्‌भागवत-ग्रंथ श्रवण करेंगे। भागवत-श्रवण की महिमा तो विधाता भी नहीं कह सकते हैं।
”कर्तव्यं दीप-दानंच पुरुषोत्तम-तुष्टये।
तिल-तैलेन कर्त्तव्यं सर्पिषा वैभवे सति॥
पुरुषोत्तम भगवान की तुष्टि के लिये दीपदान करना कर्त्तव्य है।सामर्थ्य होने पर देसी घी का दीपक, नहीं तो तिल के तेल का दीपक प्रज्ज्वलित करने का नियम है।
वैष्णवों से दीक्षित भक्त अपने-अपने आचार्यों के द्वारा निर्धारित ‘कार्तिक-मास-व्रत-पालन’-के
नियमानुसार ‘पुरुषोत्तम-व्रतपालन’ करते हैं ।*
श्रीसनातन गोस्वामी जी ने निम्नलिखित नियम बताकर अपनी बात पूरी की

एवमेकान्तिनां प्रायः कीर्तनं स्मरणं प्रभोः।
कुर्वतां परमप्रीत्या कृत्यमन्यन्न रोचते॥

एकान्त कृष्ण-भक्तों को श्रीकृष्ण-स्मरण तथा श्रीकृष्ण-कीर्तन ही अत्यंत प्रिय है। प्रायः ही वे इन दो अंगों के अलावा और किसी अंग में व्यस्त नहीं होते हैं। परम प्रीति के साथ उक्त दोनों अंगों के पालन में इतना आग्रह है कि वे अन्य समस्त कार्यों में रुचि नहीं ले पाते ।

भगवान व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण इस मास के अधिपति हैं। अतः अधिकमास सभी भक्ताें का प्रिय मास है ।

चतुर्मास को लेकर संत-महात्मा, कथावाचक, गुरु और सत्संगियों से लेकर सभी स्नातनियो को यह जान लेना चाहिए की चातुर्मास होता किसलिए है और चातुर्मास में क्या करना चाहिए।
चातुर्मास का अर्थ है वे चार माह जब व्यक्ति सांसारिक प्रवृत्तियों और परिवेशीय आचरणों से दूर रहकर एकान्त में बैठ कर साधना और चिंतन-मनन करता हुए अपने आपको साधनामय एवं दिव्य बनाए और अकेले में आत्मचिन्तन करता हुआ अपने भीतर जाए।
साल भर संसार के विषयों और सांसारिक लोगों के बीच रमण करते हुए ऊर्जा का जो क्षरण होता है उसकी भरपायी और ईश्वर के सान्निध्य का अहसास कराने के लिए है चातुर्मास।
पूर्व काल में वर्षा के इन चार माहों में आवागमन बाधित हो जाता था और देवशयन के बाद सांसारिक एवं कामनापूत्रि्त से जुड़े कर्मों पर करीब-करीब विराम लग जाता था और ऎसे में संत-महात्मा और ऋषि-मुनि एक निश्चित एकान्त स्थान पर बैठकर चार माह तक स्वाध्याय और साधना करते हुए अपने व्यक्तित्व और ऊर्जाओं को ऊँचाइयां प्रदान करते थे। ये चार माह इनके लिए कहीं सहज और कहीं कठोर साधनाओं के माह हुआ करते थे। इसी प्रकार चातुर्मास में आम लोगों के लिए भी स्वाध्याय और साधना का महत्त्व हुआ करता था।
चातुर्मास को मोटे अर्थ में लें तो वे चार माह जिनमें उन सारी वृत्तियों पर आंशिक अथवा पूर्ण विराम लग जाना चाहिए जो शेष आठ माह हम किया करते हैं या होती हैं।
यह चातुर्मास संतों, मुनियों, मठाधीशों और बड़े-बड़े लोकप्रिय, पूज्य, महापूज्य, अतिपूज्य, दृश्यमान तथा गोपनीय  साधकों और सिद्धों के लिए बड़े महत्त्व के होते हैं। इनके लिए यह ऊर्जा संरक्षण और भण्डारण का समय होता है जब ये जन से दूर किसी निर्जन या एकान्त में भीड़ भाड़ से परे रहकर शांति और सुकून के साथ भजन-पूजन और स्वाध्याय, चिंतन, मनन एवं साधनाओं को कर सकें। इसीलिए इन लोगों को चारों माह एक ही स्थान पर रहने की पाबंदी थी और इन चार माहों में वे एक ही स्थान पर डेरा डालकर तपस्या करते थे।
यह बंधन इनके आत्मिक कल्याण के लिए साल में एक बार जरूरी हुआ करता था। इसके साथ ही संसार से दूर रहने के लिए कई सारी पाबंदियां होती थीं। जो काम आठ माह में होते थे उन कामों से दूरी बनाए रखी जाती थी। यानि कि विशुद्ध रूप से वैयक्तिक और ऎकान्तिक साधना का मार्ग हैं चातुर्मास।

सर्वे भवंतु सुखिनः

रविशराय गौड़
ज्योतिर्विद

एन सी आर खबर ब्यूरो

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