कपिल मिश्रा की हार बताती है कि इस देश की जनता ने नफरत की राजनीति को हरा दिया।
अच्छा जी, तो 8 महीने साध्वी प्रज्ञा क्या ग्लोबल वॉर्मिंग के मुद्दे पर चुनावी जीती थीं।
नहीं, कपिल और बग्गा जैसों की हार बताती है कि ये देश कभी साम्प्रदायिक नहीं हो सकता।
अच्छा! तो अमानातुल्लाह खान की जीत क्या बताती है।
नतीजों के बाद आप उसे किसी भी पसंद-नापसंद के विषय से जोड़ सकते हैं। आप चाहें तो इसे छपाक से लेकर सीएए के विरोध से किसी से भी जोड़ सकते हैं। मगर यही एग्जिट पोल बता रहे थे कि आज लोकसभा चुनाव हो जाएं, तो बीजेपी सातों सीटें जीत जाएगी। हर चुनाव अलग मुद्दे पर, अलग आदमी के नाम पर लड़ा जाता है। दिल्ली में केजरीवाल इसलिए जीते क्योंकि उन्होंने वक्त रहते अपनी ज़बान पर काबू पा लिया। लोगों को बहुत सी चीज़ें मुफ्त दीं। शिक्षा में अच्छा काम किया। बीजेपी इसलिए हारी क्योंकि वो कई सालों से ये तय ही नहीं पा रही कि दिल्ली में चेहरा किसे बनाना है।
बहुत से लोग सवाल करते हैं कि वो पहले भी बिना चेहरा तय किए चुनाव जीती है। बेशक जीती है मगर जिन राज्यों में सामने मज़बूत चेहरा हो, लोग उसका काम देख चुके हों वहां आपको भी फेस के तौर पर विकल्प देना पडता है। 5 साल पहले भी बीजेपी इसी वजह से दिल्ली और बिहार हारी थी। जब आनन फानन में हर्षवर्धन को साइड कर किरण बेदी जैसी बड़बोली नेता को उतारा गया। बिहार में नीतीश के सामने बिना कोई चेहरा तय किए चुनावों में उतरे और हार गए।
जनता इतनी परिपक्व हो चुकी है कि वो जानती है कि वो किन चुनावों में किन मुद्दों पर और किसे वोट दे रही है। दिल्ली में आप इसलिए जीती क्योंकि उसके पास मज़बूत नेता था, जनता की उससे कोई खास नाराज़गी नहीं थी, उलटे बिजली और बस की छूट के बाद वो खुश थी। दूसरी तरफ बीजेपी के पास ऑफर करने के लिए कुछ नहीं था। अगर कुछ था तो वो थे मनोज तिवारी। जिनके लिए मैंने पहले ही कहा था कि उनका चेहरा देखकर तो लोग मोहल्ले की रामलीला समिति को चंदा तक नहीं देते, कोई उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट कैसे दे सकता है।
रही बात कांग्रेस की। तो जब खुद वो चुनाव लड़ने के लिए कोई मेहनत नहीं कर रही तो हम उसकी बात करके अपना टाइम वेस्ट क्यों करें। इससे अच्छा तो उतनी देर में हम राहुल गांधी के लिए ऑनलाइन बैंकॉक को सस्ता टिकट खोज लेते हैं।