यह आपातकाल नहीं, बल्कि लोकतंत्र की शक्ति की आहट है। यह शक्ति लोकतान्त्रिक है या नहीं, यह अलग प्रश्न है – प्रसन्न प्रभाकर
यह आपातकाल नहीं, बल्कि लोकतंत्र की शक्ति की आहट है। यह शक्ति लोकतान्त्रिक है या नहीं, यह अलग प्रश्न है।
इंटरनेट भी क्या चीज है। सोशल मीडिया आने के पहले यदा-कदा कुछ वेबसाइट पर पाठकों के कमेंट मिला करते थे। जाहिर है वो पाठक थोड़े अध्ययनशील और शांत हुआ करते थे । उनके द्वारा उठायी गई आपत्तियों के जबाब बड़े लेखक शायद ही कभी देते ।
सोशल मीडिया ने इन पाठकों को एक स्थान दिया। वो आपस में लिखने समझने लगे। यहाँ भी वो कभी न जबाब देने वाले बड़े लेखक मौजूद थे। असल बदलाव आया जब संचार क्रांति के तहत मोबाइल और इंटरनेट गाँव-कस्बों से लेकर सुदूर क्षेत्रो तक पहुंच गए। गाँव के लल्लन के पास भी फेसबुक अकाउंट होने लगा । जाहिर है देश स्तर पर होती हर चर्चा को लेकर उसकी अपनी उत्सुकता होती। इस उत्सुकता को शांत किया विभिन्न समूहों द्वारा तैयार किये प्रचार साहित्य ने। वो प्रचार को सत्य समझने लगे। इसी तरह देशभक्त, देशद्रोही जैसे गाँवों की शब्दावली से गायब रहनेवाले शब्द नवपीढ़ी के दिलोदिमाग पर छा गए। प्रचारों के इसी परिणाम पर अब चुनाव लड़े जाने लगे। यह हथियार बन चुके हैं। जमीन पर असर दिखना भी स्वाभाविक ही है।
ऋषि मुनि कभी तपस्या करने हिमालय पर जाया करते थे। यहाँ भी हो सकती थी तपस्या पर वह शांति नहीं थी। कितने चिंतकों के भविष्य घरेलु झंझटों की वजह से बिगड़ गए। आज माहौल अलग है। अब सामाजिक, राजनैतिक श्रेणियों के चिंतक होने लगे हैं जिनको रहना इसी समाज में है। इनकी अपनी दुनिया थी जिसमे सारे इन्हीं के जैसे थे। सोशल मीडिया ने यह दुनिया विस्तृत कर दी। इस विस्तृत होती दुनिया में जब प्रचारजनित एकोन्मुखी इकाइयों का प्रवेश हुआ तब इनकी सीमित दुनिया में खलबली मचना स्वाभाविक था। इन इकाइयों की भाषा भी भदेश थी जो इनके सर्किल में नहीं चलती। इसी खलबली ने असहिष्णुता का रूप धारण किया। स्वयं में प्रतिक्रियावश जन्मी असहिष्णुता दूसरे में दिखने लगी जो वास्तव में थी पर जिनके विरुद्ध यह प्रतिक्रिया थी, उनके लिए यह सामान्य था। प्रचारतंत्र उनकी इसी सामान्य लगनेवाली असहिष्णुता का ही लाभ उठाते हैं।
यही दबाब है जो स्वतंत्र सोंच को रोकता है । कुछ बोलने से रोकता है। वास्तव में यह एक अक्षमता है जो भीड़ के समक्ष विवश है। ऐसे में आपातकाल न होते हुए भी आपातकाल प्रतीत होना स्वाभाविक है।
वास्तव में आपातकाल अब लग ही नहीं सकता, प्रतीत मात्र हो सकता है।
यह लोकतंत्र है जो निश्चित ही लोकतान्त्रिक नहीं। हो भी नहीं सकता। जिम्मेवारी से कोई अछूता नहीं। यही इसकी नियति है जिसे किसी एक सरकार पर थोपा नहीं जा सकता।
कुछ अन्य पहलुओं पर विचार फिर कभी
कांस्पीरेसी थ्योरी में यकीन नहीं।
प्रसन्न प्रभाकर