पानी पानी पानी
जब हम लोग किताबों में पढ़ते थे या सुनते थे की अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा तो यह बहुत ही हास्यास्पद एवं अकल्पनीय लगता था । हम लोग सोचते थे की पानी, हवा और मिट्टी तो कम से कम इस संसार में ऐसे पदार्थ हैं जो सभी को बड़ी सुलभता से उपलब्ध हो जाते हैं । पानी जीवन का सबसे महत्वपूर्ण आधार होने के बावजूद भी इतनी प्रचुर मात्रा में हमारे देश में विद्यमान रहता था की जब पहली बार बिसलरी जैसी कम्पनी भारत में पानी का व्यापार करने आई तो लोगों ने उसका मज़ाक़ बनाया; उस समय हम लोग कहते थे कि जिस देश में गंगा, यमुना, सरस्वती जैसी नदियाँ हों; जिस देश की सीमाओं को सागर अपना स्पर्श देता हो, जिस देश के साथ हिमराज हिमालय खड़ा हो, जिस देश में सर्वाधिक कुंवे हों, जिस देश में जल संरक्षण के लिए प्राचीन काल से कार्य किया जाता रहा हो वहाँ कोई विदेशी कम्पनी आकर पानी बेच लेगी और हम उसे ख़रीदेंगे ?
कितना हतोत्साहित किया गया होगा उस समय बिसलरी वालों को और कितनी लगन व निष्ठा लगाई होगी कम्पनी वालों ने स्वयं को सच साबित करने के लिए !
यदि हम और आप विचारों के गहरे सागर में तैरते हुए अपने चारों तरफ़ नज़र फैलाएँ तो निश्चित ही पाएँगे की जब से हम भारत से इण्डिया की ओर बढ़े हैं तभी से हमारी मूल भूत आवश्यकता की वस्तुएँ भी विदेशी कठपुतलियाँ बनी हैं । एक तरफ़ इण्डिया बनने की चाह में हमने प्रकृति का लगातार दोहन किया और दूसरी तरफ़ हमने प्रकृति के संरक्षण को सिर्फ़ काग़ज़ों तक ही सीमित कर दिया । यदि हमारे पूर्वज पहाड़ों की पूजा करते थे, नदियों की पूजा करते थे, शाम ढलने के बाद वृक्षों को छूते तक नही थे; तो इन सबके पीछे वैज्ञानिक कारण भी थे । यदि वह पहाड़ों को पूजते थे तो उन्हें भगवान का दर्जा दिया था या पर्वतों को हमारे पुरखों ने पूजनीय माना तो वह उन्हें ठीक अपने पितरों के समान ही नुक़सान भी नहीं पहुँचाते थे । बदले में पर्वत मानसून को रोककर अपने संतान स्वरूप या भक्त स्वरूप हमारे पुरखों को समय समय पर जल उपलब्ध कराते थे । जब हमारे पूर्वज शाम ढले पेड़ों को छूते तक नही थे, जब वह वृक्षों की पूजा करते थे तो वृक्ष भी मानसून रोककर हमारी सहायता करते थे । जब हम नदियों की छाती को दिनो रात दुश्मन की तरह न रौंदकर सिर्फ़ एक माँ की तरह ही उससे अपना हक़ लेते थे तब नदियाँ भी बारहों महीने हमारा ख़याल रखतीं थीं ।
किंतु स्वार्थ के चश्मे ने हमें इण्डियन बनने के लिए ऐसा उकसाया की हम पहाड़ों का दिनों रात खनन करने लगे, वृक्षों को लगातार काटने लगे, जंगल काट हमने दिए, नदियों के सीने पर दिन प्रहार होने लगे । इन सबके साथ ही हमने अपनी नई पीढ़ी वृक्षरोपन का महत्व सही तरीक़े से समझाया नहीं, नई पीढ़ी शहरी और इंडियन मानसिकता का बना दिया, पहाड़ों और नदियों के दोहन में हमने सभी नियमों को ताक पर दिया । सरकारें इतनी भ्रष्ट और मक्कार रहीं उन्होंने अपने ख़ज़ाने भरने हेतु नियमों का पुलिंदा सदैव बन्द ही रखा ।
जब इतना सारा ज़ुल्म हम पहले से ही प्रकृति पर किए बैठे हैं । फिर मुँह से प्रकृति से अपने ऊपर दया की भीख माँग रहे हैं । किंतु इस सब के निम्न वर्ग एवं अभिव्यक ग्रामीण अंचल की छांव में वालों का क्या क़सूर जो बूँद बूँद लिए तरस रहे हैं । जो माफ़िया और बड़े मगरमच्छ इस सबके दोषी हैं वह तो बिसलरी का आनंद ले रहे हैं । कब कोई सरकार जागेगी और पहाड़ों व नदियों का लगातार अवैध खनन बन्द करवाएगी ?यदि ऐसा ही सब चलता रहा तो अगला विश्व युद्ध पानी के लिए कब होगा यह तो समय बताएगा किंतु पानी के लिए ग्रह युद्ध की सम्भावना से इंकार नही किया जा सकता !
लेख – ‘चेतन’ नितिन खरे
सिचौरा, महोबा उ.प्र.
( कवि, लेखक एवं विचारक)
राष्ट्रीय संगठन मंत्री- प्रखर साहित्यकार मंच, दिल्ली
प्रदेश प्रवक्ता- मानवाधिकार युवा संगठन, भारत