नये युग को नया आंबेडकर भी दीजिये – शायक आलोक
विचार करे कि याकूब मेनन जिंदाबाद, मोदी मुर्दाबाद में वह अपने आंदोलन को कितना झोंके .. कितनी ऊर्जा बर्बाद करे ..
जिम्मेवारी ?! .. आप हत्या की जिम्मेवारी की बात करते हैं तो आपकी जिम्मेवारी कितनी कि आप विज्ञान लेखक बनने की इच्छा रखने वाले एक छात्र को बरगला के अपने नेटवर्क में फंसाते हैं, उससे याकूब जिंदाबाद के नारे लगवाते हैं, उसका बेजा इस्तेमाल करते हैं (और तमाम बाहरी प्रश्नों को इन्होने दलित विमर्श के अंदर धकेल दिया है) .. और कोई छात्र जब इसका बुरा परिणाम झेल रहा होता तब आप उसे अकेला छोड़ देते हैं .. इस्तीफे की नौटंकी खेल रहे हैदराबाद के दलित शिक्षक कितनी बार रोहित वेमुला से यह पूछने पहुंचे कि बताओ भाई हम क्या करें तुम्हारे लिए ? यही नौटंकी पहले खेल कर दिलवा देते उसे उसके पैसे कि दबाव कम होता .. विद्यार्थी परिषद के नेता ने आवाज़ लगाई तो दतात्रेय और दिल्ली ने सुनी न उसकी — ? रोहित वेमुला की आवाज़ से सुर मिलाने तुम लोगों ने क्या किया गिद्धों, जो अभी उसकी लाश पर उछलकूद मनाने खूब लहरा रहे हो ..
कंवल भारती ने सही सवाल उठाये हैं .. प्रो. तुलसीराम होते तो वे भी ऐसे ही सवाल पूछते ..
कथित वामपंथियों की राजनीति को भी यहीं समझिये .. एक तो सिरे से आप देखिये कि सार्वजनिक चर्या में इनके सवर्ण नामधारियों ने पूरा कब्ज़ा कर रखा है दूसरा इनकी पूरी सहानुभूति, ये जो आंसू बहाते हैं घड़ियाली, सब उद्देश्यपरक है .. इनका जो आधार था वर्ग, उसे अलग अलग जातिवादी पार्टियों ने जाति में बाँट अपने अंदर कर लिया और ये टुकुर टुकुर तमाशा देखते रहे, और अब हर तरह के विमर्श में अपना हिस्सा पाने के लिए ये अपनी नाक लिए वहां घुस जाते हैं और उस विमर्श को खराब करते हैं ..
क्या वाकई आप लोग इतने भोले हैं कि हर बात का ठीकड़ा दूरस्थ सरकार पर फोड़ देने जबकि मूल सवाल के निकटवर्ती रहना विमर्श के ज्यादा काम आता, की भारी बेईमान रणनीति से अनजान हैं .. आप देखिएगा कि कुछ दशक बाद नया अध्ययन सामने आएगा तो आप पाएंगे कि दक्षिणपंथ को मजबूत करने में इन वामपंथियों का सबसे बड़ा योगदान था .. आश्चर्य मत कीजियेगा अगर भविष्य के अध्ययन में यह बात सामने आये कि दोनों के नेतृत्व ने वाकई कोई समझौता कर रखा था एक दूसरे के साथ ..
वे क्या करते हैं इस रणनीति में कि हर मुद्दे का आरोपण दूरस्थ सरकार पर कर देते हैं .. इससे होता यह है कि पूरी प्रतिरोधी ऊर्जा आपकी उसी दूरस्थ के खिलाफ नारेबाजी में समाप्त हो जाती है .. जबकि आप अपने सवाल के निकटवर्ती बने रहे तो आप पाएंगे कि कई स्तर हैं आपके सवालों के और आपको एक एक स्तर को नेस्तनाबूद कर सकल परिणाम पाने की आवश्यकता है ..
अपने दलित विमर्श से मुसलमान को भी एक क्षण यहीं जोड़ लीजिये .. अब कलेजे पर हाथ रखिये और बताइये कि आपने तो याकूब जिंदाबाद कर लिया उनके लिए, वे आपके किस मुद्दे पर कब सड़क पर आये थे .. आज़ाद भारत के इतिहास में उनकी सबसे बड़ी गोलबंदी अभी मालदा में नबी करीम के लिए हुई .. धार्मिक प्रश्न .. इससे पहले वे गोलबंद खिलाफत आंदोलन में हुए थे .. अगर आप दोनों हाशिये के कौम हैं और साथ आना चाहते हैं तो भी आपको सवालपरक, विषयपरक होकर पूरी योजना से आना होगा .. यह नहीं कि चार दलित इधर खड़े होकर याकूब जिंदाबाद कर लें और चार मुसलमान उधर खड़े होकर रोहित जिंदाबाद ..
रोहित की आत्महत्या प्रकरण के बहाने दलित विमर्श ठहरे एक क्षण को और विचार करे कि वह तुरंत क्या चाहता है (मेरे हिसाब से मनुष्यता के स्तर पर बराबरी और सबल होना), दूर भविष्य में क्या चाहता है (आर्थिक उपादानों पर बिल्कुल बराबरी) .. और फिर वह विचार करे कि याकूब मेनन जिंदाबाद, मोदी मुर्दाबाद में वह अपने आंदोलन को कितना झोंके .. कितनी ऊर्जा बर्बाद करे ..
नये युग को नया आंबेडकर भी दीजिये .. आंबेडकर से यह सीखने को मिलता है कि कैसे वे मूल प्रश्नों पर आसक्त भी रहे और अराजकता से बचने के प्रति सचेत भी रहे ..
कम से कम अपने विमर्श का बेजा इस्तेमाल तो न ही होने दे .. न अपने घुसपैठियों द्वारा न बाहरियों द्वारा ..