नई दिल्ली । देश में टेलीफोन से लेकर टेलीविजन और इंटरनेट के जरिये होने वाले सभी तरह के संचार को एक ही कानून के दायरे में समेटने की तैयारी सरकार ने शुरू कर दी है। अलग-अलग माध्यमों के लिए मौजूद कानूनों को रद कर सरकार समग्रता में एक कानून बनाना चाहती है। इस कानून का खाका सरकार ने तैयार कर लिया है। उम्मीद है कि जल्दी ही इस पर बहस करा इसे कानून का रूप देने की औपचारिक प्रक्रिया सरकार शुरू कर देगी।
नया कानून बनाने के लिए सरकार ने कम से कम तीन मौजूदा कानूनों को निरस्त करने का फैसला किया है। इनमें इंडियन टेलीग्राफ एक्ट 1885, इंडियन वायरलेस टेलीग्राफी एक्ट 1933 और इंडियन टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी एक्ट 1997 शामिल हैं। इसके अलावा सूत्र बताते हैं कि सरकार केबल टीवी नेटवर्क (रेगुलेशन) एक्ट 1995 और इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट 2000 में संशोधन करना चाहती है। संचार कानूनों को निरस्त कर एक समग्र कानून बनाने का मूल प्रस्ताव दरअसल प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली पूर्व राजग सरकार का है। साल 2001 में मंत्रियों के एक समूह ने इस संबंध में निर्णय लिया था। इसके बाद 31 अगस्त 2001 को लोकसभा में विधेयक भी पेश किया गया। विधेयक पर संसद की स्थायी समिति ने विचार किया और साल 2002 में अपनी रिपोर्ट दी। लेकिन, किन्हीं कारणवश इस विधेयक पर संसद में चर्चा नहीं हो पाई और 2004 में लोकसभा भंग होने के साथ यह विधेयक भी रद हो गया।
सूत्र बताते हैं कि मौजूदा सरकार ने समग्र कानून बनाने के लिए दूसरे देशों के संचार कानूनों का भी अध्ययन किया है। सरकार ने जो मसौदा तैयार किया है उसमें पूरे क्षेत्र के लिए एक नियामक रखने का प्रस्ताव किया है। लेकिन, लाइसेंसिंग और स्पेक्ट्रम आवंटन का अधिकार सरकार के पास ही रहेगा। हालांकि, अमेरिका, यूके समेत कई यूरोपीय देशों में लाइसेंसिंग का अधिकार नियामक को दिया गया है। जबकि चीन और इजरायल में लाइसेंसिंग का अधिकार सरकार के पास है। स्पेक्ट्रम जारी करने का अधिकार भी ज्यादातर देशों में नियामक के पास ही है। इसके अलावा एक संचार आयोग के साथ विवादों के निपटारे के लिए एक टिब्यूनल के गठन का प्रस्ताव भी कम्यूनिकेशन बिल के मसौदे में है। सूत्रों के मुताबिक सरकार ने कानून के मसौदे में निजी संचार सेवाओं और सरकारी संचार सेवाओं को अलग रखा है। नए कानून में सरकार ने प्रतिस्पर्धा को महत्वपूर्ण बताते हुए इसे नियमन के लिए जरूरी बताया है। सरकार का विचार है कि जहां प्रतिस्पर्धा से अपेक्षित नतीजे मिलने की उम्मीद हो उसे नियमन के दायरे में बांधने की जरूरत नहीं है