जिस जगह (मोहनलालगंज, लखनऊ) में ये काण्ड हुआ उसके चन्द किलोमीटर की दूरी पे अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति का कार्यक्रम था जिसके अनुसार सुरक्षा एजेंसी जैसे ख़ुफ़िया विभाग और पुलिस को चप्पे चप्पे निगरानी करनी थी वो भी कई दिन पहले से फिर भी ये हुआ इसका सीधा मतलब है कि इन लोगों ने ठीक से काम नहीं किया, इस हादसे को रोका जा सकता था, कुल मिला के ये होना ही नहीं चाहिए था।
देश के अन्य पुलिस बल की तरह लखनऊ पुलिस भी बहुत व्यस्त रहती है, इसकी व्यस्तता आप हर समय IIM चौराहे, इंजीनियरिंग कॉलेज चौराहे, टेढ़ी पुलिया, मुंशी पुलिया, इस्लमाइलगंज से शहीद पथ मोड़ पे देख सकते हैं। ये 24 घंटे व्यस्त रहते हैं, ड्यूटी बदल बदल के व्यस्त रहते हैं – इनकी व्यस्तता के शिकार होते हैं ठेले वाले, टेम्पो वाले और ट्रक वाले, इनको शहीद पथ पे भी कभी कभी व्यस्त होते देख सकते हैं ट्रक वालों के साथ। इनको इतना व्यस्त रहने का शौक है कि कूद कूद के सड़क के इस पार से उस पार ट्रक वालों से व्यस्तता मोल लेते हैं। खैर ये तो है व्यस्त पुलिस। ये देख के मैं भी आखे फेर लेता हूँ क्योंकी मैं भी व्यस्त हूँ। क्यों देखूं व्यस्त व्यवस्था तंत्र को, लोकतन्त्र है बोलने पे कहीं किसी बड़े साहब, विधायक या मंत्री की के रिश्तेदार निकल आये तो, इसलिए मैं भी सबकी तरह अपने काम में व्यस्त हूँ। अपनी कोई पैंठ या पहचान भी नहीं।
देश के हर ज़िले, तहसील, उच्च न्यालय में भी जिम्मेदार लोग व्यस्त हैं, इतने व्यस्त कि न्याय व्यवस्था ही पंगू हो चुकी हैं। निर्भया काण्ड के बाद जो उम्मीद जगी थी वो भी इस व्यस्तता में कहीं गम हो चुकी है। अपराध होने के समय अपराधी वहां था ही नहीं इसको साबित करने में व्यस्त वकील (निर्भया काण्ड), व्यस्त डॉक्टर की झूठी रिपोर्ट पे शातिर अपराधी को बचाने में व्यस्त वकील। व्यस्त हैं न्याय देने वाले साहब ये सोच के कि किस दाम पे न्याय दिया जाए। कानून की देवी के आँखों पे पट्टी बंधी है इसलिए कि कहीं न्याय वयवस्था न देख लें न्याय की देवी। बहुत हुआ आँखों पे बंधी पट्टी के सहारे न्याय देना, हटा दो पट्टी, खुले आँखों से न्याय प्रक्रिया को देखने दो देवी को, जानने दो देवी को कि कितना व्यस्त है न्याय की प्रक्रिया। है हिम्मत वो काली पट्टी खोलने की, नहीं न, डर है इस न्याय व्यवस्था को देखने के लिए पट्टी हटाने से कहीं खौलती और झुलसती आँखों से भस्म न हो जाए ये व्यस्त व्यवस्था।
देश के जिम्मेदार लोग व्यस्त हैं कि निर्भया फण्ड के सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च नहीं पाये हैं, इसको खर्च करने की व्यस्तता है। नई सरकार ने और कुछ सौ करोड़ रुपये महिला सुरक्षा के लिए आवण्टित किये हैं, कुछ लोग व्यस्त हैं बताने में कि ये पैसे कम हैं, कुछ ये सोचने में व्यस्त हैं कि इसको बाँटा कैसे जाए। कुछ लोगों को व्यस्तता का ही दुःख है। पैसे कम हैं, कैसे हो सुरक्षा, पैसे कही किसी को ज्यादा न मिल जाए और वहां सुरक्षा ज्यादा न हो जाए इसके सोच की व्यस्तता है। जिम्मेदारी है पैसे खर्च करने का, तो व्यस्त हैं पैसे खर्च करने में।
इस सब व्यस्त और जिम्मेदार लोगों बीच हर रोज निर्भया जन्म ले रही हैं … इज्जत बचाने को लड़ती, जान बचाने के लिए जद्दोजहद करती निर्भया, वो कभी बदायूँ में पैदा होती हैं, कभी बैंगलोर में, कभी लखनऊ में ……. अगर बच जाती है (मुंबई) तो उसको जूझना पड़ता है व्यस्त न्याय व्यवस्था से। मज़ाक तो निर्भया से तब होता है जब व्यस्त पुलिस के सामने उसको निर्वस्त्र करके पीटा जाता है, व्यस्त पुलिस नहीं बचाती है, व्यस्त मुख्यमंत्री इतना सब होने पे जांच का आदेश देते हैं। वहीँ पे एक व्यस्त मुख्यमंत्री जी के व्यस्त पिताजी को ये छोटी गलती लगती है।
सब कहीं न कहीं व्यस्त हैं ……… अब तो कल के अखबार पे नज़र डालने के बाद ही पता चलेगा कि इस व्यस्तता के शिकार कहाँ कहाँ पैदा हुए है ….
रंजय त्रिपाठी