दुनिया भर के लोग बनारस आते हैं और पुण्य कमाने के इरादे से यहां गंगा में डुबकी लगाते हैं। साथ ही यहां के स्थानीय लोग रोजाना नहाने और आचमन करने से लेकर पीने तक में इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन पवित्र गंगाजल की आज की सच्चाई लोगों से छुपाई जा रही है।
इसलिए हमने ‘पंचगंगा फाउंडेशन’ की ओर से पिछले साल मार्च से जून के दौरान यहां के 18 घाटों से पानी के 132 नमूने लिए। इन नमूनों के आधार पर यहां के टीवीसी, पीएच और तापमान को मापा गया। इसी तरह गंगा जल के नमूनों से पैथौजेनिक माइक्रो ओर्गेनिज्म की भी पहचान की गई। इन नमूनों से वी कॉलरा नॉन और एरोमोनस एसपीपी के सात-सात स्ट्रेन पाए गए। इसी तरह सैलमोनेला टाइफूमूरियम और शिगेला सोनेई के दो-दो स्ट्रेन मिले।
एक तरफ प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड दावा करता है कि यहां नदी में प्रदूषण का स्तर कम हो रहा है, जबकि स्वतंत्र प्रयोगशालाओं में की गई इस जांच से साफ है कि यह दावा बिल्कुल गलत है। यहां पाए गए ये ऐसे खतरनाक बैक्टीरिया हैं, जिसकी वजह से लोगों को नए-नए रोग हो रहे हैं। मौजूदा दवाएं निष्प्रभावी हो रही हैं। सैलमोनेला टाइफूमूरियम की वजह से लोगों को मियादी बुखार होता है। एरोमोनस एसपीपी से यूरिन से लेकर फेफड़े और त्वचा तक का संक्रमण होता है और सेप्टीसीमिया होने का खतरा होता है। इसी तरह शगेला सोनेई खूनी पेचिश करता है। ये सभी कीटाणु यहां एंडेमिक कैरियर के रूप में मौजूद है और किसी भी समय यह अपना रौद्र रूप दिखा सकते हैं।
ऊपर बताए गए स्ट्रेन पर विभिन्न एंटीबॉयोटिक के प्रभाव की भी जांच की गई। ये सभी तरह के स्ट्रेन मल्टी ड्रग रेजिस्टेंट पाए गए। यही कारण है कि आमतौर पर जिस संक्रमण के लिए एमोक्सीसीलिन और सिप्रोफोक्सासिन जैसे एंटीबॉयोटिक का इस्तेमाल किया जाता है, वहीं वाराणसी में डोरीपेनम और पीपरासिलीन जैसे हाइ एंटी बॉयोटिक भी असरहीन साबित हो रहे हैं। यहां टायफायड के सामान्य मामलों में भी इनकी डबल डोज दी जाती है। यानी जो काम पांच रुपए की गोली से होना चाहिए था, वह 200-250 रुपए के इंजेक्शन से हो रहा है। एंटी बॉयोटिक के असर को खत्म कर देने वाले इस सुपरबग से बचने के लिए तुरंत सक्रियता दिखानी होगी। इसके लिए जरूरी है कि सबसे पहले हम वास्तविकता को स्वीकार करें।
– डॉ हेमंत गुप्ता (लेखक ने वाराणसी में गंगा नदी में प्रदूषण का वैज्ञानिक अध्ययन किया है)