इन तस्वीरों को देखिये … शर्माइये नहीं शर्म महसूस कीजिये- रंजय त्रिपाठी /प्रेम कुमार
इन तस्वीरों को देखिये … शर्माइये नहीं शर्म महसूस कीजिये …. शर्म महसूस कीजिये कि इस समाज में रहने वालों ने ये काम किया है … इस समाज पे शर्म कीजिये ……. शर्म से मुस्कुराइए की ये तस्वीर लखनऊ की है …. तहज़ीब, संस्कृति और संस्कार ठेकेदारों के लखनऊ की तस्वीर है ये ………. दरिन्दों के समाज की तस्वीर है ये ………. ये तस्वीर भी नग्न है, परन्तु अश्लील नहीं है ………. ये अश्लील समाज में रहे वालों के कृत्य की तस्वीर हैं …………
रंजय त्रिपाठी
तस्वीरें धुंधली कर देना व्यवसाय का हिस्सा है, धंधा है। टीवी, अखबार ऐसा करते हैं कि उनके दर्शक और पाठक विचलित हो, उनसे दूर ना हो जाएं। उनकी कोशिश दर्शकों और पाठकों को अच्छा फील करवाते रहने की रहती है। इसीलिए वो सच को मुलायम कर उसका तीखापन कम करते हैं। ठीक वैसे ही जैसे दवा कपनियां फायदे के लिए कड़वी दवाओं में मिठास मिलाती हैं। ये अलग बात है कि मिठास अपने आप में ही जहर है। दर्दनिवारक दवाओं से दर्द का पता भले नहीं चलता हो, दर्द रहता वहीं है। दर्द की वजह वैसे ही बनी रहती है। दर्द पता नहीं चल पाना, या दर्द से बचना… वजह की सच्चाई से भागना है। वजह की सच्चाई से परहेज ही, हमें विनाशकारी परिणामों के सामने खड़ा कर देती है। असहनीय नतीजों से बचने का इकलौता ऊपाय यही है कि वजह की सच्चाई का सामना किया जाए।
तो सच्चाई यहां, ये है! आपको बुरा लगे तो लगे… पर सच्चाई तो देखनी पड़ेगी… आपके आंख बद कर लेने से सच खत्म नहीं होता।
न न न, नजर मत हटाइये… इसे पूरे होशोहवास में देखिये। ये आपका सच है। ये किसी युद्धरत राष्ट्र की तस्वीर नहीं। ये महान सांस्कृतिक विरासत का डंका पीटनेवाले भारत की तस्वीर है। तमीज और तहजीब का ढोल बजानेवाला लखनऊ है ये। अब ‘मुस्कुराइए’ कि आप लखनऊ में हैं।
लखनऊ के मोहनलालगंज इलाके का एक स्कूल कैंपस है।
पता नहीं, कौन है ये, कहाँ की है, पर इतना तो साफ है कि एक औरत है, जो आदमी की बर्बरता और जुल्म का निशाना है। ये अपराध नहीं, अन्याय है। अपराध और अन्याय में बड़ा फर्क होता है। खून के धब्बे, शरीर पर कहां और किन हिस्सों में ज्यादा हैं, इससे आप समझ समझ सकते हैं कि इस अबला, बेबस महिला को, मौत से पहले क्या-क्या झेलना पड़ा होगा।
उन लोगों को जो अपराधियों के लिए मानव और नागरिक अधिकार की बात करते हैं। जरा ऐसे विभत्स सच के सामने खड़ा कर दीजिए तो, वो नाक पर रुमाल रख, किनारे जाकर उल्टी करने लगेंगे। दोगले हैं वो।
बेशक ये हमारे घर की औरतें नहीं, पर कब तक हम इस खुशफहमी में सुरक्षित रहेंगे। मौज मस्ती और भोगवाद में डूबी सामाजिक व्यवस्था में, ऊँची चारदीवारी वाले अहाते में शानदार कोठी बना, उसके फाटक पर पहरेदार खड़ाकर, अगर आप महफूज और सुरक्षित महसूस कर रहे हैं तो, आपसे बड़ा ‘चूतिया’ कोई नहीं। ऐसे बीमार और सड़ रहे समाज में कोई क्या, और कबतक सुरक्षित रह सकता है। आज नहीं तो कल, अपनी बारी आनी ही है। बचते रहने से मसले हल नहीं होते, हालात कदम उठाने और जोखिम लेने से ठीक होते हैं।
सरकार को गाली मत दीजियेगा। क्यूंकि ये सबसे आसान तरीका है अपनी जिम्मेदारियों से भागने का। सोचियेगा कि हमारे पूर्वजों ने हमारे समाज में कौन से संस्कारों की स्थापना की, जिससे ऐसे ऐसे लोग इसी समाज में पैदा हुए। अतीत में सब कुछ अच्छा ही नहीं है। इसलिए कोशिश ये कीजियेगा की जो भी हमारे पास हैं उनमे औरतों के लिए इज्जत और बराबरी की भावना कैसे आए। सोच कर काँप जाना पड़ता है की हम अपने ही आधे हिस्से के प्रति कितने वहशी हो सकते हैं।
उपाय एक ही है महिलाओं के विरुद्ध हुए किसी भी अनाचरण का फौरन और वहीं विरोध हो, कड़ा प्रतिकार हो। भय का माहौल बने तभी ऐसे लोगों के हौसले पस्त होंगे।
वैसे जो समाज अपनी औरतों की ये दशा कर रहा है, उसके बने रहने की जरूरत ही क्या है। ये मैं महसूस कर रहा, तो ईश्वर को भी लगता ही होगा। तो ये हमारा doom day है, थोड़ा लंबा है, पर है।
तस्वीर और लेखन(संपादन सहित) – Prem Kumar की वॉल से