“सेकुलरिज्म के बुर्के” के बारे में तो आपने सुना है. क्या आपको किसी ने “हिंदुत्व के घूँघट” के बारे में बताया है?
अगर आपको अपने समाज की असलियत से रूबरू होना है और राष्ट्र निर्माण में सही मायनों में योगदान करना है, तो “हिंदुत्व के घूँघट” को उतार कर यह देखना ज़रूरी है कि कहीं आप स्वयं भी तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देश विकास में बाधा तो नहीं हैं.
मेरी इस पोस्ट के दो सन्दर्भ है –– कल Arunesh C Dave से हुई मेरी चर्चा और आज के Hindustan Times में छपा एक लेख –– “Our Leaders are not Asking Hard Questions, जोकि प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने लिखा है. (लिंक नीचे दिया है.)
कल अरुणेश से मैंने एक बात कही थी और एक प्रशन पुछा था:
(क) बात यह थी: “ये देश केजरी के लिये तभी तैयार होगा जब आम हिंदुस्तानी को बताया जायेगा कि भैय्या तेरी भी जिम्मेदारी बनती है कि अनुशासन में रह और भ्रष्टाचार से दूर रह।”
(ख) और प्रशन यह था: “How can true religion and a highly corrupt society coexist??? यानि कि “उस समाज जिसमे धर्म के प्रति लोग सच्ची निष्ठां रखते हो, भ्रष्टाचार कैसे फल-फूल सकता है?
कुछ ऐसे ही सवाल कभी में मैंने अपने एक व्यंग्य में पूछे थे. यह व्यंग्य २०१२ की दिवाली पर आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में मैंने अपने पुराने office में पढ़ा था. पूरा व्यंग्य किसी और दिन पोस्ट करूँगा. आज केवल यह उद्दरण:
“मेरे लिए स्वच्छ गंगा की बजाये ऐसे धार्मिक संस्कार ज्यादा ज़रूरी हैं जिनका आधुनिक वैज्ञानिक खोजों और प्रमाणों से दूर-दूर तक नाता नहीं है… कभी-कभी मेरे अन्दर बैठा logical विजय मुझसे सवाल करता है कि अगर भगवान् धरती पर अवतरित होते हैं, तो क्या वह धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान फैली अपार गंदगी एवं मैली गंगा को देख कर रुष्ट नहीं होंगे?”
मेरी इन चिंताओं के व्यक्त करने से लगभग ११० साल पहले महात्मा गाँधी भी अपनी पहली बनारस यात्रा के दौरान कुछ ऐसे ही विचलित हुए थे. रामचंद्र गुहा गाँधी जी कि इन्ही यात्राओं का सन्दर्भ देकर आम हिन्दुस्तानी और मोदी एवं केजरीवाल से कुछ पूछ रहे हैं. गुहा के लेख “Our Leaders are not Asking Hard Questions” के कुछ अंशों का सार निम्नलिखित है:
“१९०३ में गांधीजी पहली बार बनारस गए. वहां भिन्भनाती मक्खियाँ और दुकानदारों एवं तीर्थयात्रियो द्वारा किया जा रहा शोर-गुल उनके लिए असहनीय था. भगवान् के ध्यान में मग्न होने के लिए जिस वातावरण की उन्हें चाह थी वह वहां नहीं था. जब गांधीजी काशी विश्वनाथ मंदिर के द्वार पर पहुंचे, तो उनका स्वागत किया तीव्र दुर्गन्ध छोड़ते हुए सड़े-गले फूलों के एक ढेर ने. वह पूरा मंदिर भगवान् की खोज में घूमे, मगर उन्हें धुल और गन्दगी के सिवा कुछ नहीं मिला.”
“१३ साल बाद बनारस हिन्दू विश्विद्यालय (BHU) के उदघाटन समारोह में शामिल होने के लिए गांधीजी दुबारा बनारस गए. उस समारोह में राजा/महाराजा और कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता भी उपस्थित थे. इन गणमान्य लोगों के मुकाबले गाँधी जी की कोई ख़ास पहचान तब तक देश में नहीं बनी थी. अपने भाषण में गाँधी जी ने उपस्थित गणमान्य लोगों से कहा कहा कि इस देश का उद्धार तब तक नहीं हो सकता जब तक आप ऐश की ज़िन्दगी जीते रहोगे और किसान-मजदूर सिर्फ जिंदा रहने के लिए संघर्ष करते रहेंगे.”
“BHU समारोह से एक दिन पहले काशी विश्वनाथ मंदिर भी गए थे. उनके अनुसार इस मंदिर कि स्थिति भारतीय समाज का एक प्रतिबिम्ब थी. उन्होंने अपने BHU भाषण में एक सवाल पुछा: ‘अगर कोई अजनबी आसमान से अवतरित हो और इस मंदिर की हालत देख कर हम हिन्दुओं के बारे में एक राय बनाना चाहे तो क्या उसके लिए यह उचित नहीं होगा कि वह हमारी भ्रत्सना करे. क्या यह मंदिर हमारे चरित्र का प्रतिबिम्ब नहीं है’. गाँधी जी की स्पष्टवादिता से उपस्थित गणमान्य लोग तिलमिला गए. Annie Besant और मदन मोहन मालवीय –– जिन्होंने BHU के स्थापना में मुख्य भूमिका अदा की थी –– ने गाँधी जी से अपना भाषण रोकने को कहा. कई राजा/महाराजा सभा से उठ कर चले गए. और दरभंगा के महाराजा, जो की उस सभा के अध्यक्ष थे, ने सभा समाप्त घोषित कर दी.”
गुहा लिखते हैं उस सभा के १०० साल बाद आज भी कुछ नहीं बदला है. उनका अंगेजी मूल है: A hundred years later, the questions posed by Gandhi remain compellingly relevant. The English are long gone, but our temples — including those in Varanasi—remain dark, dirty, and in the control of grasping priests and pandas. The hereditary princes no longer exist; but they have been replaced by a new breed of corporate Maharajas, who live extraordinarily luxurious lifestyles while giving back little to society.
गुहा कहते हैं मोदी और केजरीवाल ने अपनी राजनितिक यात्रा में कई बार महात्मा गाँधी का नाम लिया है, परन्तु उन्होंने शायद गाँधी जी का BHU भाषण नहीं पढ़ा. गुहा कहते हैं कि जो लोग समाज की गंदगी को साफ़ करना चाहते हैं, उन्हें धर्म स्थानों की गंदगी को साफ़ रखने के बात करने में झिझकना नहीं चाहिए. मोदी के तरफ इशारा करते हुए गुहा कहते हैं: “जो अक्सर स्वयं के humble background की बड-चढ़ कर चर्चा करता है, उसे Vibrant Gujarat summits में अपने अरबपति मित्रों से उन गरीबों के प्रति ज्यादा ‘sensitivity’ होने के लिए कहना चाहिए चाहिए जो इन summits से दूर रखे जाते हैं.
गुहा का मानना है कि गाँधी, जिनकी आवाज़ में ख़ास दम नहीं था, के मुकाबले मोदी और केजरीवाल कही अच्छे भाषण देते हैं. परन्तु हमें देखना है कि ये दोनों आत्मविश्वासी नेता अपनी वाक्पटुता का इस्तेमाल करते हुए लोगों या स्वयं अपनेसामने (वाराणसी में या कहीं और) कब कड़े सवाल खड़े करते है? मूल अंग्रेजी में यह इस तरह कहा है: “For all their confidence and speaking ability, however, one is yet to hear them — in Varanasi or elsewhere — ask hard questions of their countrymen, or indeed themselves.
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मुझे पता नहीं कि expression “सेकुलरिज्म का बुर्के” कॉपीराइट कराया गया है कि नहीं, मगर मैंने expression “हिंदुत्व के घूँघट” को कॉपीराइट करवा लिया है. इसके इस्तेमाल से पहले मेरी अनुमति लेना ज़रूरी है. मजाक कर रहा हूँ, यार. वैसे अब आपको expression “हिंदुत्व के घूँघट” पर कुछ और पोस्ट्स पढ़ने को मिल सकती हैं. उम्मीद है आप बोर नहीं होंगे.
विजय चावला