खुर्शीद अनवर के निधन पर अफ़सोस है. किसी की भी आत्महत्या या मृत्यु पर शोक ही व्यक्त किया जाना चाहिए. आत्महत्या को न तो आवश्यक रूप से बेगुनाही का सबूत माना जा सकता है और न ही गुनाह का. अपने आप में सिर्फ आत्महत्या से कुछ साबित नहीं होता. पर कम से कम इतना ज़ाहिर होता है की आरोपी अदालती न्याय प्रक्रिया पर विश्वास नहीं बनाए रख सका या इस आरोप और मुक़दमे के साथ साथ आने वाली शर्म को सहन नहीं कर सका.
अदालतें और क़ानून आरोपी की शर्म और लाज के प्रति उत्तरदायी और जिम्मेदार नहीं हैं. क्योंकि न्याय के रास्ते में (खासकर जब बलात्कार जैसा गंभीर मामला हो) शर्म और लाज नहीं आ सकते. खुर्शीद पिछले काफी समय से मामले को अदालत में ले जाने की बात कहते दिखाई पड़ते थे. ये भी कहते थे कि वो खुद पीड़िता का साथ देंगे. लेकिन अंत में वो मामले का अदालत तक जाना बर्दाश्त नहीं कर सके, पीड़िता का साथ देना तो दूर की बात है.
इस पूरे मामले में ये देखना हमेशा बेहद अफ़सोसजनक रहा कि कैसे बलात्कार के मामले को साम्प्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता की लड़ाई से जोड़ने की चाल चली गयी और बार-बार बलात्कार के आरोप को साम्प्रदायिक गुटों की चाल बताया गया. ये खुर्शीद की मृत्यु के बाद भी बदस्तूर जारी है. ये देख वाकई दुखद आश्चर्य होता है की कुछ लोग खुर्शीद की मृत्यु को अब भी साम्प्रदायिक ताकतों की जीत बता रहे हैं.
कहा जा रहा है की खुर्शीद मीडिया ट्रायल से काफी दुखी थे पर मीडिया में तो ये खबर बस एक दिन पहले ही पहुंची थी. इसलिए मुझे लगता है खुर्शीद मीडिया ट्रायल नहीं बल्कि मीडिया में ये खबर पहुंचने भर से ही दुखी थे और निश्चित रूप से मीडिया और लीगल ट्रायल से डरे हुए थे, जो कि कभी हो ही नहीं सका. कुछ लोगों को इस बात का दुःख हो सकता है की खुर्शीद खुद को बेगुनाह नहीं साबित कर पाए तो कुछ लोगों को इसका कि खुर्शीद पर गुनाह साबित नहीं हो पाया. पर जहां तक मैं समझता हूँ, दोनों को ही उनकी मौत का अफ़सोस होगा. पर ऐसी किसी भी आत्महत्या से क़ानून का रास्ता प्रभावित नहीं होना चाहिए. क़ानून को अपना काम करना होता है, मीडिया को भी सच बाहर लाना होता है.
कल आशाराम या तेजपाल आत्महत्या कर लें तो उनके ऊपर लगे आरोप इससे हलके या गहरे नहीं हो जायेंगे. कुछ लोग इस कदम के आधार पर खुर्शीद को बेहद संवेदनशील करार देंगे लेकिन संवेदनशील उन्हें तब कहा जाता जब वो अपने ऊपर आरोप लगा रहे लोगों को मानहानि के मुकदमों की धमकी देने की बजाये खुद न्यायिक प्रक्रिया में सहयोग कर रहे होते.
देखने के अपने अपने नज़रिए हैं. पर जहां तक मैं समझता हूँ ये लड़ाई काफी हद तक न्याय और व्यक्तिगत संबंधों के बीच थी. इस मुद्दे पर खुर्शीद का समर्थन कर रहे बहुत सारे लोगों की राय और कार्यवाही काफी अलग होती अगर खुर्शीद और उनके दोस्ताना सम्बन्ध न होते. न्याय की लड़ाई में व्यक्तिगत संबंधों का आड़े आना, साम्प्रदायिकता और मोदी का नाम लेकर बलात्कार के आरोपी का बचाव करना इस पूरे मामले के सबसे दुखद पहलू रहे.
ये भी मानता हूँ की खुर्शीद बदकिस्मत रहे. इस मामले में अगर उन पर तुरंत एफआईआर हो गयी होती तो फेसबुक और कानाफूसियों में ये मामला इतना लंबा न खीचा होता और शायद उन्हें इतने लंबे समय तक बुरी आशंकाओं का सामना भी न करना पड़ा होता. और तब शायद उन्होंने ऐसा कदम न उठाया होता. लेकिन दूसरी ओर अगर इस मामले में अंत में भी एफआईआर दर्ज नहीं होती तो शायद पीडिता का स्वर हमेशा के लिए दबा रह जाता.
असीम त्रिवेदी (चर्चित कार्टूनिस्ट)के फेसबुक वॉल से.