दिल्ली: शीला का चौथा दांव और बिखरा विपक्ष

delhi-assembaly-election-5252b99c58592_exlदिल्ली देश की राजधानी है और यहाँ की विधानसभा अपेक्षाकृत नई विधानसभा है।

वर्ष 1991 में संविधान संशोधन हुआ और केंद्र शासित प्रदेश को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र घोषित कर दिया गया। इसके बाद 1993 में पहली विधानसभा का गठन हुआ।

वैसे यह कहना ग़लत होगा कि वह पहली विधानसभा थी क्योंकि 1952 से 1956 के बीच भी दिल्ली में एक विधानसभा हुआ करती थी।


दिलचस्प ये है कि 1993 में गठन के बाद तो यहाँ भाजपा की सरकार बनी लेकिन 1998 में जो उसकी हार हुई तो अभी तक सत्ता उसके लिए दूर की कौड़ी बनी हुई है।

तभी से शीला दीक्षित मुख्यमंत्री हैं। वे चौथी बार फिर मैदान में हैं और उनके सामने प्रमुख विपक्षी दल भाजपा की ओर से कोई बड़ी चुनौती दिखाई नहीं देती।

अगर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के दावों को सही मान लिया जाए तो यह ज़रूर शीला दीक्षित के लिए थोड़ी चिंता का विषय हो सकता है।

शीला दीक्षित की तीन पारियाँ
1993 से 1998 तक भाजपा ने मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और सुषमा स्वराज के रूप में तीन लोगों को मुख्यमंत्री बनाया।

40 रुपए किलो प्याज को मुद्दा बनाकर कांग्रेस सरकार में आई और तभी से शीला दीक्षित मुख्यमंत्री बनी हुई हैं।

अपने पहले दो कार्यकाल की तरह तीसरे कार्यकाल में हुए विकास के कार्यों के बल पर ही कांग्रेस पार्टी मैदान में है।

लेकिन इसी तीसरे कार्यकाल में लोगों ने राष्ट्रमंडल खेलों का भ्रष्टाचार भी देखा है और उसमें शीला दीक्षित का नाम उभरता भी देखा है।

हालांकि कानून व्यवस्था शीला सरकार का जिम्मा नहीं केंद्र सरकार का है। लेकिन दिल्ली में पिछले दिसंबर में हुए जघन्य बलात्कार कांड ने लोगों में असुरक्षा की भावना तो पैदा की है।

चूंकि केंद्र में भी कांग्रेस के ही नेतृत्व वाली सरकार है, लोगों ने इसे राज्य सरकार से भी जोड़कर देखा। विपक्ष ने इसे चुनावी मुद्दा भी बना रखा है।

बिजली और भारी भरकम बिल ने भी विपक्ष को एक मुद्दा दिया है।

कमज़ोर विपक्ष
लेकिन चुनाव जितने मुद्दों पर लड़े जाते हैं, उतने ही नेता का चेहरा देखकर भी लड़े जाते हैं।

यह चेहरा ही दिल्ली में भाजपा की चुनौती बना हुआ है।

मदन लाल खुराना अच्छे नेता थे। दरकिनार किए जाने के बाद पहले तो वे पार्टी छोड़कर चले गए और जब लौटे तो उम्र साथ छोड़ चुकी थी।

साहिब सिंह वर्मा एक सड़क हादसे में गुज़र गए और विजय कुमार मल्होत्रा ने पिछले चुनाव में साबित कर दिया कि वे पुराने नेता ज़रुर हैं लेकिन उनमें कोई करिश्मा नहीं है कि वे जनता को लुभा सकें।


सुषमा स्वराज तो दिल्ली की कभी थी ही नहीं। न उनकी यहाँ की राजनीति में दिलचस्पी थी।

इस बार डॉ हर्षवर्धन को पार्टी ने अपना चेहरा बनाया है। हालांकि ये निर्णय लंबी जद्दोजहद के बाद लिया गया। ऐसे में वे भी पार्टी में जान फूँक सकेंगे, ऐसा अब तक तो दिखता नहीं।

आम आदमी की झाड़ू 
अन्ना हज़ारे के साथ लोकपाल बिल पर देश में खलबली मचाने वाले अरविंद केजरीवाल अब उनसे अलग हैं और अपना राजनीतिक दल बनाकर झाड़ू चुनाव चिन्ह के साथ मैदान में हैं।

अब तक तो उनकी पार्टी ने भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बना रखा है और एहतियातन कांग्रेस और भाजपा से बराबर की दूरी बना रखी है।

इस पार्टी ने प्रचार के अपने नए तरीके इजाद किए हैं और इसका कुछ असर भी दिखता है।

अगर चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों को सही मान लें तो अरविंद केजरीवाल की पार्टी सरकार तो नहीं बनाएगी लेकिन सरकार बनाने का ख्वाब देखने वाली पार्टियों का खेल ज़रुर बिगाड़ देगी।

हालांकि राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि चुनाव में इस पार्टी के असर का सही आकलन नतीजों के बाद ही होगा।