लालू यादव का नाम दिमाग में आते ही एक ऐसे नेता ही छवि उभरती है, जो अपनी चुटीले अंदाज और बेबाक बयानबाजी से ठहाकों की नींव रखने में माहिर हैं।
लेकिन ऐसा नहीं कि मजाकिया लहजे का यह चैंपियन खिलाड़ी सियासत जैसा गंभीर खेल नहीं जानता।
हर नेता की तरह लालू ने अपने करियर में जमीन भी देखी और आसमान भी, लेकिन देश की राजनीति में उनके कद को नजरअंदाज करना समझदारी नहीं कही जाएगी।
राजनीतिक जीवन में खूब धूप-छांव देखने वाले लालू एक बुरा वक्त फिर शुरू हो गया है।
अरसे से चारा घोटाले के झोल में फंसे लालू पर रांची की सीबीआई अदालत ने सोमवार को फैसला सुनाया, तो साफ हो गया कि आरजेडी सुप्रीमो के राजनीतिक जीवन में जलजला आ गया है।
यह साफ है कि इस घोटाले में दोषी ठहराया जाना उनकी राजनीतिक राह में एक ऐसा गड्ढा है, जिससे उनकी गाड़ी निकलना करीब-करीब नामुमकिन है।
दागी सांसदों के खिलाफ बना कानून उनके लिए मुसीबत बनकर आया है, क्योंकि उन्हें अगर दो साल से ज्यादा जेल होती है, संसद की सदस्यता से हाथ धोना होगा।
उनके राज में बिहार की सड़कों पर कुछ ऐसे ही गड्ढे दूसरों की गाड़ी खूब फंसाया करते थे। अब उनकी बारी है।
लालू का सफरनामा
जेपी आंदोलन के नारों की गूंज से पैदा हुई यादव तिकड़ी की अहम कड़ी लालू 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। 1997 तक खूब ठाठ-बाट रहा, लेकिन इसी चारा घोटाले के आरोप और भ्रष्टाचार की तोहमत ने उन्हें कुर्सी छोड़ने पर मजबूर कर दिया।
और उन्होंने ऐसा कदम उठाया, जिसकी उम्मीद किसी को न थी। उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को रातोंरात सीएम बना दिया। संभावनाओं से उलट मामूली धक्कों के अलावा राबड़ी सरकार ने 2005 तक आराम से सत्ता का सुख भोगा।
राजनीतिक विरोधियों का आरोप रहा कि लालू और उनकी पत्नी राबड़ी की लालटेन जब तक जली, बिहार की हर गली में अंधेरा रहा। उनके शासन को ‘अपराध के व्यवस्थित कल्चर’ और ‘जंगल राज’ के लिए भी याद किया जाता है।
कॉलेज में सीखा राजनीति का ककहरा
पटना यूनिवर्सिटी में पॉलिटिक्स की एबीसीडी सीखने वाले लालू केंद्र के तख्त-ओ-ताज के लिहाज से भी अहम रहे। अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली सरकार जब 13 दिन में लुढ़की, तो अहसास हुआ कि बिहार का यह नेता किंगमेकर के रूप में कितना अहम है।
राजनीतिक गलियारों में अक्सर वह लोग शीर्ष पद तक पहुंच जाते हैं, जिनका नाम भी लोगों की जबान पर नहीं रहता। युनाइटेड फ्रंट सरकार के एच डी देवेगौड़ा एक ऐसा ही नाम रहे। लेकिन इसमें देवेगौड़ा का जलवा कम और लालू का ज्यादा था।
दरअसल, लालू ने ही प्रधानमंत्री के रूप में उनका नाम आगे बढ़ाया था और ऐसा कहा जाता है कि खुद देवेगौड़ा भी इस बात पर हैरान रह गए थे।
कैसे बने किंगमेकर?
राजनीति में आरजेडी के बॉस की दबंगई यूएफ सरकार से आगे भी जारी रही। यूपीए सरकार की पहली पारी में उन्हें रेल मंत्री का पद मिला और कामयाबी की पटरी पर उनकी गाड़ी जो दौड़ी, तो फिर किसी सिग्नल के रोके न रुकी।
अपने कार्यकाल में यात्री भाड़े में कोई इजाफा न करना, कोच में सीटें बढ़ाना, रेलवे स्टेशन पर मिट्टी के कुल्हड़ चलाना और गरीब रथ दौड़ाना कुछ अहम फैसले रहे, जिन्होंने उन्हें शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचाया।
रेलवे की तारीफों की पुल बंधने लगे और यही पुल लालू को दुनिया के प्रमुख बिजनेस स्कूलों तक ले गए, जहां वे आने वाली पीढ़ी को खजाना संभालने और मुनाफा कमाने का मंत्र पढ़ाया करते थे।
बुरा वक्त बनकर आए नीतीश
इस सुनहरे दौर के बाद उन्होंने बुरा वक्त देखा। बिहार में कभी राज करने वाले लालू का सूपड़ा नीतीश ने साफ किया। और बीते कुछ साल से उनकी स्थिति केंद्र में भी खराब है।
आरजेडी लोकसभा चुनावों में भी बुरी तरह पिटी और दिल्ली की पावरफुल गैलरी में कभी कलफ लगे कुर्ते झटकते चलने वाले लालू के मुरीद भी कम होने लगे।
अब सवाल उठता है कि लालू के जेल जाने के बाद आरजेडी का क्या होगा? या बिहार की राजनीति में जो जगह बनेगी, उसमें पांव जमाने में कौन कामयाब रहेगा?
आरजेडी का अब क्या होगा?
यह लगभग साफ है कि उनके बाद पार्टी की कमान राबड़ी देवी के हाथों में नहीं, बल्कि उनके बेटे तेजस्वी संभालेंगे। उन्हें बीते कुछ वक्त से लालू की विरासत संभालने के लिए तैयार किया जा रहा था।
लेकिन आईपीएल की दिल्ली टीम में शामिल होकर कई सीजन बेंच पर आराम करने वाला यह खिलाड़ी सियासत की पिच कितनी समझ पाया है, यह उनका पहला मैच ही बताएगा।
लालू के बाद आरजेडी में कोई और बड़े चेहरे दिखते हैं, जिनमें रघुवंश प्रसाद सिंह और प्रभुनाथ शामिल हैं, लेकिन इन दोनों में रघुवंश की साफ छवि उनका साथ दे सकती है।
आरजेडी बॉस के सलाखों के पीछे जाने पर केंद्र की राजनीति में शायद ही कोई असर पड़े, क्योंकि उनकी स्थिति पहले से काफी कमजोर है।
लालू के रंग में भंग
लेकिन बिहार की राजनीति में यह बड़ी करवट साबित हो सकती है, जहां हाल में भाजपा से रिश्ता तोड़ने वाले नीतीश कुमार को इस फैसले से भारी फायदा होने की उम्मीद है। जाहिर है, भगवा दल को कमर कस लेनी चाहिए।
राजनीति में अपने परिवार को स्थापित करने की कोशिश भी लालू ने की है, लेकिन साधु यादव भी उनसे मुंह मोड़ चुके हैं। वह कांग्रेस और सोनिया गांधी के पुराने समर्थक रहे हैं, लेकिन इन हालात में वह भी उनके लिए शायद ही कुछ कर सकें।
सियासत क्या-क्या रंग नहीं दिखाती। एक वक्त था जब होली के रोज देश भर का मीडिया लालू के रंग दिखाता था और आज लालू का रंग उड़ा है, तो सारी सुर्खियां उनके खिलाफ जा रही हैं।