मुहम्मद बिन तुगलक ने मुस्लिम उलेमाओं को अपने पाले में करने के लिये तमाम कूद-फांद की लेकिन अंततः उलेमा उससे दूर छिटक गये और उसकी तुगलकी नीतियों के कारण उसकी प्रजा का जीवन त्रस्त हो गया। तुगलक की तरह भारत का शहंशाह उर्फ़ प्रधानमंत्री बनने के लिये मुलायम को मुस्लिम मतों की जरूरत है और इन मतों को हासिल करने के लिये वह पूरे प्रशासन को मौलवियों और मुस्लिम नेताओं के सामने नतमस्तक किये हुए हैं। यूपी में लगातार हो रहे दंगों के पीछे फिलहाल यही वजह है।
मीडिया के कर्णधार और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल बीजेपी और संघ को दंगों को जिम्मेदार करार दे रहे हैं लेकिन हकीकत इसके बरक्स है। बीजेपी के कट्टरपंथी धड़े और संघ की क्या नीतियां हैं यह जग जाहिर है। लेकिन इनकी तमाम हरकतों के बावजूद बीएसपी शासन में दंगे नहीं हो रहे थे। इसका स्पष्ट मतलब है कि अब कोई नया फैक्टर कार्यशील है जो कि दंगे करवाने के नापाक मंसूबों को अमलीजामा पहना रहा है।
मुजफ्फरनगर के दंगों को अगर टेस्ट केस मान लिया जाये तो सिलसिलेवार ढंग से इस नये फैक्टर को समझा जा सकता है। कवंल गाव की घटना जब घटी तो स्थानीय मीडिया ने नौ वर्षीय बच्ची से बलात्कार और उसके बाद बच्ची के भाईयों द्वारा एक मुस्लिम युवक के मर्डर और बदले में उस युवक के गांव वालों द्वारा दोनों भाईयों के घटनास्थल पर ही मर्डर को रिपोर्ट किया था। यूपी में सामान्य प्रथा है कि हत्या होने पर सामने वाले पक्ष के तमाम लोगों का नाम FIR में दर्ज करा दिया जाता है। उस घटना में भी मुस्लिम युवक के गांव वालों ने दोनो भाईयों के गांव के तमाम लोगों के नाम FIR मे लिखवा दिये। इसके बाद मुस्लिम पक्ष के प्रति नतमस्तक प्रशासन ने भाईयों के कातिलों पर कोई कार्रवाई नहीं की और दूसरे पक्ष के तमाम लोगों की धरपकड़ शुरू कर दी। इसके बाद इस भेदभाव से नाराज जाटों ने पंचायत बुलाई तो उस पर प्रशासन ने प्रतिबंध लगा दिया। इसके विपरीत ठीक अगले दिन जुमे की नमाज के बाद हजारों मुस्लिमों ने सभा की जिसमें उत्तेजक तकरीरें की गईं, नारे लगाये गये और ललकारा गया। यह बताना जरूरी है कि इस सभा को वहाबी मुस्लिमों ने हाईजैक कर लिया था। पक्षपात की हदें पार करते हुए प्रशासन ने इस सभा में जाकर ज्ञापन भी स्वीकार किये।
इसके बाद मामला हिंदू बनाम मुस्लिम हो गया जिसमें बच्ची के साथ दुर्व्यहवार का मुद्दा भावनात्मक बिंदु बन गया और बहू-बेटी बचाओ के नाम से जाटों ने बड़ी पंचायत बुलाई। इस पंचायत में शामिल होने जा रहे लोगों पर मुस्लिम बहुल गांव में हमला हुआ। लोगों ने पंचायत में पहुंच अपने जख्म दिखाये। इसके बाद तो हिंसा तय थी। भीड़ ने एक मुस्लिम युवक की हत्या कर दी। इसके जवाब में पंचायत से लौटते लोगों पर हमले हुए। कई लोग मारे गये। इस पंचायत में शामिल लोग जैसे ही अपने गांव पहुंचे, दंगा शुरू हो गया। खबरें आ रही हैं कि हमलावर मुस्लिम वहाबी धड़े के थे जिन्होंने अपने परिवारों को पहले ही सुरक्षित स्थानों पर भेज दिया था।
अब इस घटनाक्रम में कोई सीडी से दंगे फैलाने की बात करते हुए बीजेपी को दोष दे तो यह हास्यास्पद के सिवा कुछ नहीं। हिंदू कट्टरपंथी तो दिन-रात इसी धंधे में लगे हुए हैं। कटी हुई गायों की तस्वीरों से लेकर तमाम चीजें फेसबुक आदि पर प्रतिदिन पोस्ट होती हैं। दंगे हुए क्योंकि प्रशासन ने अन्याय किया, लोगों का क्रोध भड़का तो मुस्लिम समुदाय के वहाबी धड़े ने उसमे घी डालने का काम किया।
यह समय मुस्लिमों के लिये आत्ममंथन का है। उसका राजनैतिक नेतृत्व वहाबी धड़े के सियासी नेताओं और मौलवियों के हाथों सिमटता जा रहा है। वहाबियों की तमाम हरकतें संघ और बीजेपी के कट्टरपथी धड़े के समान हैं। दंगा भड़काने में लिप्त वहाबी तत्व घनी मुस्लिम आबादी के इलाकों में केंद्रित होते हैं। दंगा फैलने पर शिकार अधिकांश गैर-वहाबी मुस्लिम होते हैं जो कि ज्यादातर हिंदू बहुल क्षेत्रों में निवास करते हैं। अब वक्त आ चुका है कि गैर-वहाबी मुस्लिम उनसे अपनी अलग पहचान बनाएं और वहाबियों का उतनी ही तत्परता से विरोध करें जितना कि बीजेपी और संघ जैसे हिंदू संगठनों का करते हैं। देवबंद के वहाबियों ने ही भारत-पाकिस्तान का बंटवारा कराया था और अब फिर सऊदी अरब की फंडिंग से यहां का अमन चैन खराब करने में लगे हुए हैं।
बाकी धर्म के लोगों को भी वहाबियों और बाकि मुस्लिमों का अंतर समझने की जरूरत है। बिना दोनों पक्ष के कट्टरपंथियों को आइडेंटिफाई किये एक-दूसरे से नफरत करने से देश का ही नुकसान होगा फायदा किसी को नहीं।
मुलायम भी अब इस लल्लो-चप्पो की राजनीति का फल भुगतने वाले हैं। इन दंगों में आखिरी तौर पर मुस्लिमों का भारी नुकसान होगा। मौतों से भी बढ़कर उन्हें आर्थिक नुकसान उठाना पड़ेगा। वे जान बचा कर मुस्लिम इलाकों में तो भाग सकते है लेकिन उनके घर-संपत्ति आदि का भारी नुकसान हो चुका है। इसके अलावा भी व्यापार और कृषि के लिये सभी एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। निश्चित ही मुस्लिम एसपी सरकार से बेहद नाराज हैं। जिसका परिणाम आने वाले चुनावों मे देखने को मिलेगा। एसपी-बीजेपी गठजोड़ द्वारा प्रायोजित दंगों की बात हास्यास्पद है। इन दंगों से बीजेपी विन-विन सिचुएशन में है और एसपी के पास सिवाय हार के कुछ भी नहीं। एसपी की व्याकुलता अखिलेश यादव द्वारा शांति बनाये रखने की अपील करते समय मुस्लिम टोपी पहनने से साफ़ नजर आती है।
भारतीय मीडिया को भी इससे सबक लेना चाहिये। दंगों से आंख मूद लेने से दंगे रुक नहीं जाते। राजनैतिक दलों के नजरिये को जनता के सामने रखना ही पत्रकारिता नहीं है। दंगे किसी मोदी या अमित शाह के किये नहीं हो जाते हैं। दंगों की एक पृष्ठभूमि होती है। स्थानीय कारण होते हैं। समाज में फैलने वाले अलगाव और तनाव के कारणों का निष्पक्ष रूप से आकलन करना चाहिये। भारत पहले ही बहुत ज्यादा ध्रुवीकृत हो चुका है। हर पक्ष अपने मनमाफिक खबरें सुनना पसंद कर रहा है। ऐसे में सतही रिपोर्टिंग से काम होने वाला नहीं है। सोशल मीडिया अब हर घटना की रिपोर्टिंग का जरिया बन चुका है। ऐसे में मेनस्ट्रीम मीडिया में बात दबाने से भी बात छुपने वाली नहीं है।
सोशल मीडिया बंदर के हाथ उस्तरा है। इस उस्तरे की काट धारदार पत्रकारिता के अलावा कुछ नहीं हो सकती है। अखिलेश यादव यूपी के मनमोहन सिंह हैं। उनका शासन उनके बजाय मुलायम, आजम खान, शिवपाल यादव जैसे सत्ता केंद्रों पर निर्भर है। लल्लो-चप्पो की राजनीति एसपी के लिये आत्मघाती साबित होने वाली है। उनके शासन के एक साल के भीतर ही सभी वर्ग मायावती की शासन का युग याद कर रहे हैं। बीजेपी को फायदा हो न हो आने वाले दिनों में बीएसपी को बढ़त मिलनी तय है।
जहां तक दंगों की बात है तो जाटों में इतना गुस्सा है कि पुलिस भी सेना के बिना गांवों में नहीं घुस पा रही है। गणेश उत्सव भी शुरू हो गया है। आने वाले दिनों में यूपी सहित आस-पास के राज्यों में दंगे के फैलने की पूरी-पूरी संभावना है। यह दंगा प्रशासनिक तरीके से रुक नहीं सकता।
इसके लिये सभी दलों के नेताओं को मिलकर मेहनत करनी होगी। खासकर अजीत सिंह इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। मीडिया को भी भाईचारे का महौल बनाना होगा। दंगा तो बंद भी हो जाएगा लेकिन क्या मुलायम सिंह इस एकतरफा तुष्टिकरण की नीति को छोड़ेंगे? किसी समाज के पिछड़ेपन को दूर करने के लिये उसके लिये आर्थिक योजनाएं चलाना या उसके खिलाफ़ चल रहे गलत मुकदमों को बंद करना एक बात है। लेकिन किसी दूसरे वर्ग की कीमत पर अन्यायपूर्ण प्रशासन चलाना एक खतरनाक लक्षण है। ऐसे में हालात बदलने की उम्मीद बेमानी ही नजर आती है। कोई भी लोकतंत्र निष्पक्ष शासन, समान कानून और सभी वर्गों के समान विकास की अवधारणा से ही सफ़लता हासिल करता है। अफ़सोस की बात है कि यूपी में इन सभी का अभाव है।
अरुणेश सी दवे