मुजफ्फरनगर जनपद में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान लांक-बाहवड़ी में एक संप्रदाय के लोगों पर हुए अत्याचारों का डर पठान कोट मुहल्ले में रूके तीन परिवारों के लोगों के चेहरों पर अब भी साफ दिखाई देता है। वे आज भी वह मंजर याद कर सिहर उठते है।
लांक-बाहवड़ी गांव से जान बचा भागकर आए शहीद, सलीम, नूर मोहम्मद ने जुल्मों की दास्तां बयां करते हुए बताया कि 7 सितंबर को मुजफ्फरनगर में पंचायत के बाद दंगे की सूचना पर रात में उनके परिवारों पर दूसरे संप्रदाय के लोगों ने हमला बोल दिया।
उनके घर जला दिए और कई लोगों को मौत के घाट उतार दिया। 8 सितंबर को वे वहां से जान बचाकर खेतों के रास्ते भाग निकले और बड़ौत तक पहुंचे।
उनके पड़ोसी मेहरद्दीन की काटकर हत्या कर दी, बहू-बेटियों को जिंदा जला दिया गया और लोगों पर कहर बरपाया गया।
मौत के उस मंजर को जब भी ये लोग याद करते थे तो वे सिहर उठते थे। वहां से परिजनों ने बताया कि उनके यहां दो लड़कियों की शादी के लिए सामान भी जोड़ा था, लेकिन वहां से वे सब कुछ छोड़ नंगे पैरों से चलकर यहां तक पहुंचे है, लेकिन यहां के लोगों ने उन्हें सुरक्षित रखा है।
यहां शरण लिए ये परिवार अब भी भयभीत है। उनका यह भी कहना था कि अब उनके आशियाने भी गांव में नहीं मिलेंगे। उनके भी नामो निशां मिट गए होंगे।
शिनाख्त को तरसती ‘लाशें’
जिले में भड़की हिंसा में 53 लोगों की लाशें बिछ गईं। ऐसी एक या दो नहीं, बल्कि आठ लाशें हैं, जिनकी अब तक शनाख्त ही नहीं हुई। कोई नहीं जानता मरने वाले कौन हैं। अभी तक इन लाशों पर दावा करने के लिए भी कोई नहीं पहुंचा है।
पंचनामे से लेकर पोस्टमार्टम किए जाने तक इन लाशों की शनाख्त का प्रयास किया गया, लेकिन किसी ने पहचाना नहीं। जनपद के अधिकतर लोगों का सुराग लग चुका है, ऐसे में इन मृतकों के बाहरी जनपदों के होने की आशंका बढ़ रही है। क्योंकि फसाद के दौरान जिले में मौजूद बाहरी लोगों को भी बलवाईयों ने अपना निशाना बनाया था।
पोस्टमार्टम के 72 घंटे बाद भी शनाख्त न होने के बावजूद पुलिस को इनका अंतिम संस्कार करना पड़ा।