देश में हिंसा फैलाने के लिये राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में सोशल मीडिया को जिम्मेदार ठहराया गया है। इस पर नकेल कसने और हिंसा के दौरान फोन और इंटरनेट पर लगाम कसने का सुझाव भी दिया गया है। मुजफ़्फ़रनगर दंगों ने भी ऐसे मामलों में सोशल मीडिया की भूमिका पर कई सवाल खड़े कर दिये हैं। ऐसे में सोशल मीडिया क्या है, उसका समाज और देश पर क्या प्रभाव पड़ रहा है; सोशल मीडिया में भागीदार किसी भी व्यक्ति की सोच और कार्यकलाप पर सोशल मीडिया के क्या असर हो रहे हैं जैसे विषयों पर गंभीर विर्मर्श की जरूरत है। सोशल मीडिया दरअसल एक प्लेटफ़ॉर्म है जहां आपके समाज के विभिन्न हिस्सों का अक्स परिलक्षित होता है। समाज के विभिन्न वर्गों का बौद्धिक, शैक्षिक और सामाजिक स्तर जैसा होगा, उनके द्वारा वैसी ही सूचनाओं चित्रों और राय का इनपुट सोशल मीडिया में आपको नजर आएगा। आपको सोशल मीडिया में वामपंथी, हिंदुत्ववादी, इस्लामवादी, दलित विचारक आदि सभी नजर आएंगे। इनका अनुपात भी लगभग वही नजर आयेगा जैसा हमारे मध्यमवर्ग में है।
सोशल मीडिया यानी सूचनाओं का झंझावात, हर पल नई जानकारी सामने आती है। इतिहास और धर्म संबंधी नये तथ्य सामने आते हैं। बरसों से सुलगते सवालों पर रायशुमारी होती है। कट्टरपंथी, वामपंथी धड़ा अत्यधिक मुखर होता है। सोशल मीडिया में प्रथम दृष्टया इनका ही बोल-बाला नजर आता है। ये लोग अपनी विचारधारा के खिलाफ़ तथ्य तर्क नहीं सुन सकते और बेहद जल्द बद्तमीजी पर उतर आते हैं। लेकिन इसके विपरीत बहुसंख्यक लोग शांति से मूक दर्शक भी बने रहते हैं। ये अमूमन अपनी स्पष्ट राय व्यक्त नहीं करते और बहस में पड़ने से भी गुरेज करते हैं। एज ग्रुप का भी अलग-अलग व्यवहार होता है। बीस-पच्चीस साल के युवाओं के पास राजनैतिक सामाजिक अनुभव नहीं होता। ये बहुत जल्द कट्टरपंथी विचारधारा से प्रभावित हो जाते हैं। इसके विपरीत परिपक्व आयु के लोग मामलों में गंभीर राय व्यक्त करते हैं और सेक्युलर विचारधारा से ज्यादा प्रभावित होते हैं। यदि कोई वर्ग नफ़रत फ़ैलाने का काम करता है तो उसका प्रतिरोध करने वाले भी सोशल मीडिया में मौजूद हैं।
भारत की गणित-विज्ञान केंद्रित शिक्षा पद्धति ने देश में ऐसी पीढ़ी को पैदा कर दिया है जो इतिहास, समाजशास्त्र, आजादी के आंदोलन, बटवारे के कारक जैसे विषयों में शून्य है। कट्टरपंथी हिंदू-मुस्लिम संगठनों, वामपंथियो ने इन सब विषयों पर अपने अपने हिसाब से भ्रम फ़ैलाया हुआ है। नेहरू-गांधी की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा और आजादी के बाद नवीन भारत के निर्माण की प्रक्रिया से भी लोग अनभिज्ञ हैं। इस विषय पर सोशल मीडिया में जबरदस्त योगदान हो रहा है। लोगों की सत्य से मुठभेड़ हो रही है। अपने-अपने तथ्यों का मिलान किया जा रहा है एवं पुष्ट स्रोतों के साथ ऐतिहासिक दस्तावेजों, किताबों, भाषणों का आदान-प्रदान हो रहा है। आज की नई पीढ़ी इस माध्यम के जरिये ज्यादा बेहतर समझदारी विकसित कर रही है। हिंदू-मुस्लिम एकता के लिये भी यह बहुत कारगर है। अलग-अलग सामाजिक समूहों में रहने वाले हिंदू-मुस्लिम युवा एक मंच पर आकर अपनी आशंकाओं, समस्याओं और विचारधाराओं पर चर्चा कर रहे है। इसके अलावा भी सोशल मीडिया यानी राष्ट्रीय विषयों पर चर्चा इससे क्षेत्रीय दलों का प्रभाव क्रमशः घट रहा है जो कि स्वस्थ लोकतंत्र एवं मजबूत भारत के लिये बेहद शुभ संकेत है। हिंदी को भी नया जीवन मिला है। इसके इस पुनर्जागरण काल में हिंदी लेखन अब मठाधीशों के चंगुल से निकल आम आदमी की पसंद पर निर्भर होता जा रहा है।
सोशल मीडिया के दुष्प्रभाव भी हैं। इससे जुड़ने वाला हर एक नवागंतुक धीरे-धीरे अपनी रुचि, बौद्धिक स्तर आदि के हिसाब से अपने जैसे लोगों के समूह में शामिल हो जाता है। ऐसे में कट्टरपंथियों को अपनी विचारधारा के मुफ़ीद नवयुवकों का समूह आसानी से उपलब्ध हो जाता है। सामूहिक रूप से नफ़रत फ़ैलाने, असत्य, फ़र्जी और भड़काऊ सामग्री का प्रचार तंत्र इस माध्यम से बेहद तेजी से काम करता है। इनके ऊपर कड़ी निगरानी की आवश्यकता है और सामाजिक विद्वेष फैलाने वालों के खिलाफ़ सख्त कानून बना, उसके निष्पक्ष अमल से इस समस्या से निपटा जा सकता है। यह भी समझना होगा कि यह अनियंत्रणीय माध्यम किसी भी दंगे या टकराव का कारण नहीं बन सकता है। यह कैटेलिस्ट याने उत्प्रेरक की तरह काम अवश्य करता है। स्थानीय स्तर पर पैदा हुए तनाव को बढ़ाने में जो योगदान अफ़वाहों का होता है, उतना ही योगदान सोशल मीडिया का होता है। यह हमारा सामान्य सामाजिक व्यवहार है जो कि सोशल मीडिया में सामूहिक रूप से नजर आने लगता है। जैसे हमारा समाज क्रमशः बेहतर होता जाता है, वैसे ही सोशल मीडिया का व्यवहार भी क्रमशः बेहतर रूप लेगा। अभी इस माध्यम में युवाओं की बहुतायत है लेकिन आने वाले चंद सालों में इस माध्यम में परिपक्व लोगों की बहुतायत होगी। बल्कि सूचना के अभाव में परिपक्व हुए लोगों से सोशल मीडिया से जुड़े लोग ज्यादा बेहतर नागरिक बनेंगे।
इस माध्यम पर लगाम लगाने के बजाय इससे उत्पन्न हो रही चुनैतियों का सामना करने के लिये कदम उठाने की आवश्यकता है। अब मेनस्ट्रीम मीडिया में खबरें छुपाने से समस्या का समाधान नहीं होगा। तनाव उत्पन्न करने वाले कारणों का खुलासा कर दोषियों को उजागर करने का काम मीडिया का है। मुजफ़्फ़रनगर और पूरे उत्तरप्रदेश में चल रहे पक्षपाती निजाम को यदि मीडिया ने उठाया होता तो दंगों की नौबत नहीं आती। सरकार राजनैतिक दलों और मीडिया के लिये सोशल मीडिया एक सक्षम सहायक की तरह है। यह आपको समाज में चल रहे अंतर्विरोधों, जनता के मत और उसकी समस्याओं से क्षण-प्रतिक्षण अवगत कराने में सक्षम है। इस पर नकेल कसने की कोशिश अपनी अक्षमता का परिचय देने के सिवा कुछ नहीं होगी। कोई भी समाज अपने जनप्रतिनिधि चुनता है और सरकार बनाता है। सरकार यदि समाज को चुनने बैठ जाये तो जान लीजिये उसके दिन अब लद गये हैं।