अयोध्या में परिक्रमा पर दोनों तरफ से बांहें चढ़ाने की एक वजह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी भी हैं।
दरअसल, मोदी संघ परिवार के लिए आशा के साथ कुछ आशंकाएं भी खड़ी कर रहे हैं।
संघ परिवार को लग रहा है कि देश के अन्य राज्यों में मोदी भले ही भाजपा के लिए रास्ता बनाने में मददगार बनते दिखाई दे रहे हों, लेकिन यूपी में वह सियासी समीकरणों को सुधारने के साथ गड़बड़ाने का भी कारण बन सकते हैं।
इसलिए परिक्रमा उस कुश्ती की रिहर्सल भर है जो अक्टूबर से सपा और संघ परिवार के बीच होनी है।
सूत्रों के अनुसार, संघ परिवार के रणनीतिकार आशंकित हैं कि मोदी के खिलाफ लामबंद मुस्लिम मतदाता अगर उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस के पक्ष में चले गए तो दिल्ली की गद्दी पर भाजपा को बैठाने का भगवा खेमे का सपना बीच रास्ते में टूट सकता है।
ऐसी आशंका सपा के रणनीतिकारों को भी परेशान किए है। उन्हें भी लगता है कि मुस्लिम मतदाताओं को अगर कांग्रेस की तरफ जाने से न रोका गया तो उनके राजनीतिक अस्तित्व पर सवाल खड़ा हो सकता है।
साथ ही लोकसभा चुनाव बाद सपा की सियासी राह में भी तमाम रोड़े आ सकते हैं।
इसलिए हो रही कोशिश
चूंकि यूपी में संयोग से ऐसी स्थितियां मौजूद हैं, जिनसे मुसलमानों को कांग्रेस की तरफ जाने से रोका जा सकता है, इसलिए अभी परिक्रमा और अक्टूबर से मंदिर निर्माण के संकल्प के सहारे इस काम को अंजाम तक पहुंचाने की तैयारी कर ली गई।
मुलायम मुस्लिम मतों को अपने साथ जोड़े रखना चाहते हैं तो संघ परिवार भी यही चाहता है। जिससे दिल्ली में भाजपा का रास्ता आसान हो जाए। उत्तर प्रदेश में लोकसभा की सबसे ज्यादा 80 सीटें हैं। इसलिए यहां की सियासी लड़ाई को मुलायम व संघ परिवार अपने दोनों लोगों के बीच समेट लेना चाहते हैं।
मौका भी है और मुद्दा भी
दरअसल, इस मुद्दे पर सियासी दांव-पेंच का आज जैसा अनुकूल वक्त दोनों ही खेमों के पास बहुत दिन बाद आया है। दोनों ही खेमों के रणनीतिकारों को मालूम है कि मंदिर पर वोटों का ध्रुवीकरण तभी होगा, जब कुश्ती सपा व संघ परिवार के बीच हो।
इस बार मौका और मुद्दा दोनों मिल गए। यूपी में संघ के सामने मुस्लिम हितैषी माने जाने वाले मुलायम सिंह यादव की पार्टी की सरकार है और कुछ महीनों बाद लोकसभा चुनाव भी होने हैं।
संघ परिवार के रणनीतिकार जानते थे कि मंदिर मुद्दे पर उनके आंदोलन या कार्यक्रम को सपा की सरकार किसी भी स्थिति में नहीं अनुमति नहीं देगी। बस उनकी तरफ से इस परिक्रमा के जरिये मंदिर मुद्दे को गरमाने की योजना पर रिहर्सल की रणनीति बन गई।
जिससे इस मुद्दे के ताप का उन्हें एहसास हो जाए। जिस तरह का माहौल बन गया है। मीडिया पर यह मुद्दा जिस तरह सुर्खियों में है। उसको देखते हुए दोनों पक्षों का उत्साह बढ़ना स्वाभाविक है।
वे समान रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके होंगे कि मंदिर मुद्दा चुनावी परिदृश्य को दोनों के� बीच समेट सकता है।� हालांकि मुलायम 2004 में भी सत्ता में रहे लेकिन तब संघ परिवार की कठिनाई दिल्ली में बैठी अटल विहारी वाजपेयी की सरकार थी।
संघ परिवार के रणनीतिकार कुछ करते तो निशाने पर केंद्र सरकार भी आ जाती। बाद में बसपा की सरकार आ गई। बसपा के सरकार में रहते वोटों का ध्रुवीकरण हो नहीं सकता था।
असली काम अक्टूबर से
लोकसभा चुनाव की संभावना अगले वर्ष ही दिखाई दे रही है। जाहिर है कि इतने लंबे समय तक आंदोलन चलाना� विहिप व संघ परिवार के लिए आसान नहीं है। सरकार के लिए भी इतने लंबे समय तक अयोध्या में सुरक्षा बलों का जमावड़ा और सख्ती बनाए रखना संभव नहीं है।
इसलिए रविवार को जो कुछ होगा। उसके बाद दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी मौजूदा रणनीति में सुधार करेंगे। फिर अक्टूबर में इस मुद्दे पर दो-दो हाथ की तैयारी के साथ मैदान में उतरेंगे। तब यह मामला चुनाव तक खिंचेगा।
विहिप के संरक्षक अशोक सिंहल घोषणा कर चुके हैं कि केंद्र सरकार अगर 18 अक्टूबर तक संसद में कानून� बनाकर श्रीराम जन्मभूमि स्थल पर मंदिर निर्माण का रास्ता नहीं तैयार करती है तो देश में एक लाख स्थानों पर मंदिर निर्माण के लिए संकल्प सभाएं होंगी।
अयोध्या में सरयू नदी में एक लाख के करीब श्रद्धालु मंदिर निर्माण को संघर्ष का संकल्प लेंगे। जाहिर है कि उस समय सपा सरकार और संघ परिवार के बीच अखाड़े में असली कुश्ती होगी।
अक्टूबर ही क्यों
आंदोलन के लिहाज से अक्टूबर विहिप के लिए सबसे बेहतर मौका रहता है। दशहरा से दीवाली तक पड़ने वाले तमाम पर्व और उन पर अयोध्या में जुटने वाली श्रद्धालुओं की भीड़ इन आंदोलनों को सफल बनाने में मददगार बनती है। साथ ही विहिप व संघ परिवार आसानी से अपना संदेश लोगों के बीच पहुंचाने में कामयाब रहते हैं।