ओम थानवी जी के मोहन श्रोत्रिय और अविनाश के सम्बन्ध में खूब चर्चा हो रही है. चर्चा के मूल में एक मौलिक सवाल है अविनाश के लेखन पर श्रोत्रिय ने अपना नाम लेखक के रूप में दे दिया है. दोनों पक्ष अपनी अपनी बात कह और कर रहे है. लेकिन एक मौलिक सवाल इससे निकालता है . शोधार्थी, नौजबन लेखको का शोषण साहित्य, समाजशास्त्र और पत्रकारिता में हो रहा है ! विश्वविद्यालयो के नमी प्रोफेसर अपने प्रोजेक्ट्स में शोधार्थी को जोड़ते हैं उन्हें नाम तो नहीं ही देते हैं पैसा देने में भी कृपणता बरतते हैं . अनेक शोधार्थी उस ययाति दुश्चक्र के शिकार होते हैं परन्तु उन बारे नमो के सामने वे बोल नहीं सकते हैं क्योकि वे नाम हे उनके करियर के कर्ता धर्ता होते है.
आज अखबार के स्तंभों के अनेक स्तंभकार दूसरो से लिखवाकर छपने के बाद ही पढ़ते हैं जब लोगो की बधाई उन्हें मेलने लगाती है. यह दुर्भाग्य है देश का. आज के राजनेता भी मोह खोलने के लिए दूसरो पर निर्भर होते है ।उन्हे पढ़ें का वक्त नहीं, लिखने का समय नहीं !! वे जवाहर लाल नेहरु , कृपलानी, गाँधी, दीनदयाल जी, लोहिया, आंबेडकर जी से भी अधिक व्यस्त हैं !! इन राजनेताओ ने देश , जेल के यात्रा करते हुए इतना लिखा कि आज भी वे सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित है. थानवी जी ने बौद्दिकता से जुरे एक बारे सवाल को जन्म दिया है. बौद्धिकता को अंकुरित होने से पहले ही उसे मरने की जो प्रक्रिया चल रही है उसपर हम सब को गंभीरता से सोचना होग.