उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने भले ही जातीय रैलियों व सम्मेलनों पर रोक लगाकर सियासत व जातिवाद के गठजोड़ को तोड़ने की कोशिश की हो। पर, समाज व राजनीति को नजदीक व गहराई से देखने तथा समझने वालों को इस गठजोड़ के आसानी से टूटने की उम्मीद नहीं दिखाई देती।
इनका कहना है कि समय बीतने के साथ इसके उपयोग का तरीका और नेता जरूर बदले लेकिन जाति का राजनीतिक रूप से इस्तेमाल प्रारंभ से ही होता आया है। जाति सामाजिक सच्चाई है।
अलग-अलग समय इसका उपयोग अलग-अलग तरह से होता रहा है। इनका मानना है कि न्यायालय के फैसले ने एक उम्मीद जरूर जगाई है। वह यह कि राजनीतिक दल जातीय ताकत और स्वाभिमान का राजनीति खेल सार्वजनिक रूप से खेलने से हिचकेंगे। पर, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह खेल अब मैदान के बजाय मंच पर परदे के पीछे से न खेला जाए।
आजादी के पहले ही रख दी गई जातिवाद की नींव :
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक समीक्षक रामबहादुर राय बताते हैं कि देश में संसदीय व्यवस्था को अमली जामा पहनाने के लिए 1919 के मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के साथ ही भारत की संसदीय परिपाटी में जातीय तत्व के समावेश का रास्ता खोल दिया गया था।
भारत को स्वाधीनता और उसकी संसदीय व्यवस्था तय करने के लिए ब्रिटेन में लंबी बहस के दौरान स्मिथ नाम के एक अधिकारी ने हाउस ऑफ कॉमन्स के सभी सदस्यों को अपनी एक किताब वितरित कराकर इस खतरे के संकेत दे दिए थे।
भारत में अलग-अलग प्रांतों में महत्वपूर्ण पदों पर लगभग 30 साल काम चुके स्मिथ ने उस किताब में लिखा था, ‘आप लोग (अंग्रेज) भारत के लिए जिस तरह के संवैधानिक सुधार और संसदीय परिपाटी का खाका खींच रहे हैं। उससे भारतीय समाज में जाति का प्रभाव बढ़ेगा। धीरे-धीरे जाति का राजनीतिक इस्तेमाल शुरू हो जाएगा। जो बहुत खतरनाक होगा।’ पर, अंग्रेज नहीं माने। आज वही दिख रहा है।
बहुत पुराना है जाति का खेल :
आज के राजनेताओं व राजनीति पर नजर डालें तो उक्त निष्कर्ष शत-प्रतिशत कसौटी पर खरे उतरते दिख रहे हैं। पार्टी कोई भी हो और नेता कोई। सभी अलग-अलग तरह से जाति के तत्व का अपनी ताकत बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं।
उसका स्वरूप और समीकरण भले ही अलग-अलग रूप लिए हों। देश के जाने-माने समाजशास्त्री जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में लंबे समय तक पढ़ाने वाले प्रो. आनंद कुमार कहते हैं कि जब कांग्रेस में दो फाड़ हुए और इंदिरा गांधी अलग हुई तो उन्होंने सबसे पहले इस तत्व का उपयोग अपनी ताकत बढ़ाने के लिए किया।
इंदिरा गांधी ने ब्राह्मण, दलित व मुस्लिम गठजोड़ के सहारे ही लंबे समय तक इस देश में राज किया। राजीव गांधी हो या अब सोनिया व राहुल गांधी, यह भी उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। प्रो. कुमार का निष्कर्ष 1989 से पहले कांग्रेस की राजनीतिक ताकत में प्रत्यक्ष रूप से दिखता भी रहा।
बाद में इसे सपा ने आगे बढ़ाया और बसपा ने उस पर और चटख रंग चढ़ाया। बीच में अति पिछड़ा व अति दलित आरक्षण के नाम पर यह कोशिश भाजपा ने भी की लेकिन अलग-अलग कारणों से वह उसे बहुत आगे नहीं ले पाई। बसपा ने 2007 में इसी प्रयोग पर चलकर ब्राह्मण व दलित गठजोड़ से 34 प्रतिशत आबादी के वोटों का बड़ा हिस्सा अपने लिए जुटाकर बहुमत की सत्ता बनाई।
सपा ने कांटा से कांटा निकालने की रणनीति पर 2012 में ब्राह्मण, यादव व मुस्लिम वोटों के गठजोड़ को आगे बढ़ाया। जिससे उसे भी बहुमत की सत्ता मिल गई। अब यूपी से लोकसभा के लिए ज्यादा से ज्यादा सीटें सपा की झोली में डालने के लिए मुलायम सिंह यादव ब्राह्मण, यादव व मुस्लिम के इस गठजोड़ को अतिपिछड़ों के सम्मेलनों के जरिये और मजबूत बनाने की कोशिश में जुटे हैं।
बसपा ने गाढ़ा किया रंग :
वरिष्ठ पत्रकार राय कहते हैं कि 1952 से अब तक जितने चुनाव हुए हैं, हर पार्टी जाति के आधार पर ही अपने उम्मीदवारों का फैसला करती आई हैं। वर्ष 1986 तक पार्टियां यह काम परदे के पीछे करती थीं।
सार्वजनिक तौर पर जातिवाद का विरोध करती थीं। पर, 1986 में जब कांशीराम ने बसपा की स्थापना करके दलित चेतना को राजनीतिक दिशा देने की शुरुआत की तो जाति के प्रत्यक्ष राजनीतिक इस्तेमाल का प्रारंभ भी हो गया।
राय की बात पर अतीत के घटनाक्रम पर नजर दौड़ाएं तो यह बात सही साबित होती है। कांशीराम ने बामसेफ के जरिये दलित उभार की कोशिश की थी। पर, अकले दलित उभार के राजनीतिक इस्तेमाल के प्रयोग के बावजूद जब बसपा का उत्तर प्रदेश विधानसभा में सीटों का आंकड़ा 60-65 से ऊपर नहीं पहुंच पाया तो उन्होंने कांग्रेस की राह पर आगे बढ़ते हुए 1993 के चुनाव में पहली बार कुछ ब्राह्मणों को भी उम्मीदवार बनाया।
कांशीराम के इस प्रयोग को मायावती ने आगे बढ़ाया और 2007 के चुनाव से पहले उन्होंने बसपा के बैनर तले जातियों के सम्मेलन शुरू किए। इससे पहले राजनीतिक दल पार्टियों के नाम पर तो जातियों की जुटान करते थे लेकिन जातियों के नाम पर राजनीतिक जुटान का कोई उदाहरण नहीं याद आता। इसकी शुरुआत बसपा व मायावती के खाते में ही जाती है।
मुलायम भी चले इस राह पर :
सिर्फ कांशीराम ही नहीं, राममंदिर आंदोलन के कारण 1990 में जब जनता दल व भाजपा का गठजोड़़ टूटा, जनता दल में नेतृत्व का संघर्ष शुरू हुआ तो मलुयम ने भी अपनी राजनीतिक ताकत को बढ़ाने के लिए मुस्लिम हितैषी के साथ-साथ यादव नेता के रंग को भी अपने ऊपर चढ़ाने की कोशिश की।
इसी का नतीजा है कि हिंदुत्व के नाम पर भाजपा के ध्रुवीकरण की कोशिश उत्तर प्रदेश में यादव को इस पार्टी के पास लाने में अब तक सफल नहीं हो पाई है।
वर्ष 1993 में अलग-अलग जातियों के समीकरण से मुलायम व कांशीराम की विधानसभा चुनाव मैदान में सफलता हासिल करना और मिलकर यूपी की सत्ता पर कब्जा करना भी जातीय राजनीति की ताकत की पुष्टि करता है।
आसान नहीं है राजनीति से जातिवाद का खात्मा :
पत्रकार रामबहादुर राय ही नहीं वरिष्ठ समाजशास्त्री प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज भी कहते हैं कि जाति भारत की राजनीति की सच्चाई है। सिर्फ न्यायालय के फैसले से इस तत्व के निष्प्रभावी होने की उम्मीद पाल लेना ठीक नहीं है।
किसी न किसी रूप में यह तत्व रहेगा। फर्क सिर्फ यह दिख सकता है कि सार्वजनिक रूप से और फूहड़ तरीके से इनके राजनीतिक इस्तेमाल पर रोक लग जाए। जो काम खुल्लमखुल्ला हो रहा है वह परदे के पीछे होने लगे।
अगर इतना भी हो जाता है तो राजनीति के लिए काफी हद तक शुभ होगा। इस लिहाज से न्यायालय का फैसला स्वागतयोग्य है।
समाजशास्त्री प्रो. आनंद कुमार कहते हैं कि यह फैसला उस समय आया है जब पूरा समाज स्वयं पुनर्गठन की प्रक्रिया में है। वह कहते है कि जाति काठ की हांडी है जो बार-बार आग पर नहीं चढ़ती। न्यायालय ने इसे बार-बार चढ़ाने का दुस्साहस करने वालों को रोकने की शुरूआत करके स्वागत व बधाई का काम किया है।