अपनी बातविचार मंच

पाती प्रेम भरी…..

आजादी से पहले अवध क्षेत्र के किसी शहर से कलकत्ता (अब कोलकाता) कमाने गए किसी पति ने हिंदी और अवधी मिश्रित भाषा में अपनी पत्नी को प्रेम भरा पत्र भेजा,

‘सर्व श्री सर्वोपमायोग लिखा कि चिट्ठी रमुआ की माई को पहुंचे।

हम यहां ठीक से रहते हुए भगवान से नेक मनाया करते हैं कि तुम भी गांव मा अम्मा-बप्पा और रमुआ के साथ राजी-खुशी से होगी।

रमुआ की माई! जब से हम यहां कलकत्ता कमाय आए हैं, तब से तुम्हारी याद बहुत आवत है। तुम्हारी सूरत आंखिन के आगे दिनभर नाचती रहती है। जानती हो, कल हम दाल मा लौकी डार के बटुली चूल्हे पर चढ़ाय दिये रही पकने की खातिर, लेकिन तुम्हारी याद आई, तो हम दाल की बटुली उतारना ही भूल गए। दाल जलकर कोइला होइगा। अब हम क्या करते, नोन भात खाकर काम पर गए।

आवात समय जब तुम दरवाजे के पीछे हिचकी लेकर रोवै लागी, तो हमरा मन कहिस कि न जाई कलकत्ता। लेकिन गांव में भी तौ गुजारा नहीं हो सकता था। तो रमुआ की माई हमका आवै का पड़ा। रस्ता मा भी मन कई बार पिछरा कि लौट चलो। टरेन का तीन रुपये का टिकट भी कटवाय लिया रहा, इससे दिल कड़ा करिकै आना पड़ा। अब हम तौ यही कहेंगे, कि जी कड़ा करके कुछ महीना इंतजार करौ। फागुन मा हम आवै का बंदोबस्त कर रहे हैं। राम चाहेंगे, तो महीना-पंदरह दिन की छुट्टी भी मिल जाई।’

इसके बाद चिट्ठी पर दो जगह की एक छोटी सी जगह की स्याही फैल गई थी। इससे अनुमान होता है कि चिट्ठी लिखने वाला रो पड़ा था। चिट्ठी में आगे लिखा था,

‘रमुआ की माई! हमार चिंता मत करना। हम यहां काफी राजी-खुसी से रह रहे हैं। हमार चिंता मत करना। हां, तुम्हरी एक बात याद करकै हमका बहुत हंसी आवात है। चलते समय तुम डर रही थी कि कलकत्ता मा कोई मेहरारू हम पर मोहित होकर भेढ़ा न बनाय ले। धत्त पगली, हम लोगन की तरफ कलकत्ता आने वाले को जो डराया जाता है, वह बिल्कुल झूठ है। यहां की औरतें कोई जादू-टोना नाही करती हैं। सात-आठ महीना मा जो हमरी समझ में आवा है, वह यह कि यहां कमाने आने वाले लोग कई बार भटक जाते हैं। यहां की मेहरारुओं के चक्कर मा आ जात हैं। फिर वे अपने गांव-घर का भूलि जात हैं, अपने अम्मा-बप्पा, मेहरारू और लड़कन-बच्चन का भूलि जात हैं। तुम चिंता मत करौ। हम तोहार कसम खाई कै कहते हैं कि हम किसी के चक्कर मा न पड़ब। तू हमका जान से ज्यादा पियारी हो।’

इसके बाद पत्र की स्याही कुछ ज्यादा चटख हो गई थी। इसका निहितार्थ यही है कि स्याही खत्म होने के बाद दूसरे दिन स्याही लाने पर आगे पत्र लिखा गया था। पत्र में लिखा था,

‘रमुआ तौ अब अपने पैरन पर चलै लाग होई। उसकी भी बहुत याद आवत है। इस बार आऊंगा, तो उसके लिए यहां से कपड़े ले आऊंगा। अम्मा की रतौंधी की दवाई भी यहां के एक वैद्य महाराज से लैके रख लिया है। आऊंगा तौ लेता आऊंगा। बप्पा की खातिर जूता खरीदै का है, अबकी पइसा मिली, तो सबसे पहले वही खरीदब। शामसुंदर काका के हाथ जो चौतीस रुपया भिजवावा रहा, ऊ मिल गवा होई। बप्पा से कहना, कंधई बाबा का सतरह रुपया उधार चुकाय देहैं, उनकै नौ रुपया रहि जाई, जो हम फागुन मा आने पर चुकाय देबै। बाकी पइसा से अनाज-वनाज खरीदकर रख लें। अगर श्रीधर काका की भैंस दूध देती हो, तो रमुआ के लिए पाव भर दूध बंधाय दिहौ। रुपया-दुई रुपया जो भी दाम होगा, आने पर चुका दूंगा। एक बात कही, यहां की औरतें बहुत चालाक हैं। यहां जिस कोठरी मा हम रहते हैं, उसकी मालकिन के पास हर महीना अपनी बचत जमा करते रहते हैं कि जब गांव जाएंगे, तब लैइ लेंगे। हमरे हिसाब से उसके पास तेइस रुपया जमा होना चाहिए, लेकिन ऊ कहती है कि उन्नैइस रुपया जमा है। हम मन मसोस कै उससे उन्नैइस रुपया लैके घोसाल बाबू के पास जमा कर दिया है। सुना है कि ऊ बहुत ईमानदार हैं। एक तौ मालिक काम ज्यादा करवाते हैं, मजूरी कम देते हैं। ऊपर से ई लुटेरा लोग हम सबका अलग से लूटि लेते हैं। तुम चिंता मत करना। हम गरीबन कै पइसा इनके पची ना (पचेगा नहीं)।’

‘रमुआ की माई! अम्मा-बप्पा की देखभाल अब तुम्हारे ही जिम्मे है। हम विशवास है, तू अपने जियत कोई कष्ट नाही होने दोगी। लेकिन का करैं, पापी मन मानता नहीं है यह बात कहे बिना। अम्मा से कहना, फागुन मा उनकी खातिर दो धोती और कुर्ती का कपड़ा लेता आऊंगा। बप्पा की खातिर भी कुर्ता-धोती का कपड़ा मोलवाया हूं। ढाई रुपये मा दो जोड़ी कुर्ता-धोती मिल जाई। तुम्हरे लिए एक पाजेब देखा है सोनार के दुकान पर। दाढ़ीजार! चार रुपया मांगत है। लेकिन चिंता मत करो, फागुन से पहले खरीद लेब। रमुआ की माई, जब पाजेब पहिनकै गांव मा निकली, तो देखै वालेन के सीने पर सांप लोटि जाई। अच्छा, अब चिट्ठी लिखब बंद करित है।

अम्मा-बप्पा का पैलगी, रमुआ का आसीरवाद और तुहका पियार।

-रिखीराम तेवारी।’

 

अशोक मिश्र

Related Articles

Back to top button