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उत्तरप्रदेश पर असर डालेंगे कर्नाटक के नतीजे

rahul-akhilesh-51147bae788d6_lकर्नाटक और उत्तर प्रदेश की आबोहवा भले ही एक न हो। दोनों राज्यों के सियासी सरोकारों में भी कोई सीधा रिश्ता न हो। पर, कर्नाटक चुनाव के बुधवार को आए नतीजे यूपी के सियासी सरोकारों के लिहाज से काफी मायने रखने वाले हैं।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि लोकसभा चुनाव में यूपी का मूड दिल्ली की गद्दी का फैसला करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिए सभी सियासी दलों को लोकसभा चुनाव के मद्देनजर यूपी के मतदाताओं को अपने-अपने पक्ष में करने के लिए इन नतीजों की नींव पर अपनी रणनीति की झलक दिखानी होगी। साथ ही यह भरोसा भी पैदा करना होगा कि उन्होंने इन नतीजों से बहुत कुछ सीखा और समझा है।

कांग्रेस नेता सोनिया गांधी हों या राहुल गांधी। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह हों या तीसरे मोर्चे में बड़ी भागीदारी का सपना देख रहे मुलायम सिंह यादव।

इन सभी की सियासी जड़ें यूपी से ही हैं। इसलिए इन सभी को यूपी में अपनी नीति और नीयत का प्रमाण देना होगा।

यही नहीं, यूपी की सियासत में जो जातिवादी तत्व पिछले डेढ़ दशक में मजबूत हुआ है। कर्नाटक की राजनीति में वह बहुत पहले से रहा है।

वर्ष 2008 में कर्नाटक में भाजपा की जीत में भी इसी तत्व ने निर्णायक भूमिका निभाई थी। इसलिए कोई ताज्जुब नहीं कि सपा और बसपा जैसे दल ही नहीं, बाकी पार्टियां भी इस दिशा में भी आगे बढ़ती दिखें।

राजनीतिक समीक्षक राजनाथ सिंह सूर्य की मानें तो कर्नाटक के नतीजे कांग्रेस के लिए उत्साह भरने वाले हैं पर, इनमें सुधरने का संदेश भी छिपा है।

सच्चाई से मुंह न चुराने की हिदायत भी। भाजपा के लिए आत्ममंथन का सुझाव और नसीहत है।

साथ ही यह सलाह भी कि उहापोह से उबरो नहीं तो कुछ हासिल नहीं होगा। रही सपा की बात तो उसके लिए भी इन नतीजों में सबक है।

सबक यह है कि जनता दल (एस) का कर्नाटक के नतीजों से तीसरे मोर्चे के आगाज का निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी है।

इन नतीजों की इस सलाह को समझने की जरूरत है कि जनता भ्रष्टाचार और स्वेच्छाचार को बरदाश्त करने वाली नहीं है।

पर, दूसरे वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल कहते हैं, ‘कुछ कारणों से पिछले कुछ समय के भीतर हमारे समाज और हमारी संसदीय पद्धति में निराशाजनक और अजीब तत्व का समावेश हो गया है। वह यह है कि जो जनदबाव में फैसले करेंगे। सुधरने की कोशिश करेंगे।

समाज उसी को सजा भी देगा। भाजपा येदियुरप्पा को हटाती है तो नुकसान होता है। गडकरी को नेपथ्य में भेजती है लेकिन उसका कोई लाभ नहीं मिलता।

पर, शीला दीक्षित पर कांग्रेस तटस्थ भाव अपना लेती है तो उसका कुछ नहीं बिगड़ता। इसलिए कर्नाटक के नतीजे सिर्फ सियासी दलों के लिए नसीहत देने वाले नहीं है बल्कि समाज को भी आगाह करने वाले हैं कि अपनी सोच बदलो।’

रतनमणि लाल कहते हैं कि कर्नाटक के नतीजे कांग्रेस को यूपी में मुलायम सरकार पर हमला करने की और ताकत देंगे। विभिन्न मुद्दों पर चहुंतरफा घिरी कांग्रेस इन नतीजों को आधार बनाकर यह तर्क देगी कि उसकी नीतियों को जनता ने पसंद किया है।

विपक्ष के इन आरोपों में कोई दम नहीं है कि कांग्रेस के राज से जनता ऊब चुकी है। इसलिए कर्नाटक के नतीजे प्रदेश की सरकार को सावधान करने वाले हैं।

उसे न सिर्फ कांग्रेस के हमलों से अब निपटना होगा बल्कि इसका जवाब देने की तैयारी भी करनी होगी।

राजनीतिक समीक्षक सूर्य कहते हैं कि कांग्रेस अगर इन नतीजों को अपने लिए ताकत मानेगी तो वह मुंह की खाएगी।

सही बात तो यह है कि कर्नाटक में जनता ने कांग्रेस को सत्ता के साथ यह संदेश भी दिया है कि उसे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर समझौता नहीं सख्त कार्रवाई चाहिए।

तीसरी बार केंद्र की सत्ता पाने का सपना देख रहे संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) को कर्नाटक की जीत को अपनी नीतियों की सफलता के बजाय भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के गुस्से का परिणाम मानकर इन नतीजों का विश्लेषण करना होगा।

सूर्य कहते हैं कि मजबूरी चाहे सपा व बसपा के समर्थन की हो। पर, यूपी के संदर्भ में केंद्र कई बार भ्रष्टाचार के मुद्दे की अनदेखी करते दिखा है। इसमें सुधार न किया गया तो उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।

सूर्य कहते हैं कि जहां तक भाजपा का मामला है तो कर्नाटक के नतीजों ने बता दिया है कि वहां भाजपा नहीं बल्कि भ्रष्टाचार हारा है।

भाजपा नेताओं का स्वेच्छाचार हारा है। ऊपर से नेताओं के उहापोह की स्थिति ने जनता के भीतर भाजपा नेताओं को लेकर अविश्वास पैदा किया।

येदियुरप्पा को शुरू में ही हटा दिया जाता तो सरकार भले� ही चली जाती लेकिन भाजपा बच जाती। दोबारा चुनाव होते तो भाजपा और अधिक बहुमत से सत्ता में लौटती।

कल्याण सिंह हों या येदियुरप्पा दोनों की जब तुलना करें तो भाजपा के लिहाज से एक सबक और है। वह यह कि नेताओं के अहंकार के प्रभाव में दबकर नीतियों से समझौता न किया जाए।

व्यक्तियों पर आधारित होने के बजाय नीतियों व सिद्धांत पर आगे बढ़ने की कोशिश हो। खतरा यह है कि मोदी पर भी उहापोह न खत्म हुआ तो उनका भी लाभ भाजपा नहीं उठा पाएगी।

रतनमणि लाल भी कहते हैं कि उहापोह ने ही कर्नाटक छीन लिया। हिमाचल को दूर कर दिया। भाजपा इससे न उबरी तो उसे कुछ नहीं हासिल होगा। पर, येदियुरप्पा व कल्याण पर उनका निष्कर्ष कुछ अलग है। वह कहते हैं कि यूपी में कल्याण सिंह गए और भाजपा चली गई।

कर्नाटक में येदियुरप्पा के मामले में यही हुआ। इसलिए भाजपा को उहापोह से उबरकर पार्टी को जमाने व बढ़ाने वालों को तवज्जो देने का सिद्धांत स्वीकार कर लेना चाहिए। घालमेल में फंसे रहे तो कुछ हासिल नहीं होगा।

दोनों राजनीतिक विश्लेषकों का निष्कर्ष है कि कर्नाटक के नतीजे सपा और उसके मुखिया मुलायम सिंह यादव के लिए सबसे ज्यादा सबक देने वाले हैं। पर, इसके� दोनों लोग अलग-अलग आधार बताते हैं।

सूर्य के अनुसार, कर्नाटक में भले ही जनता दल (एस) के नेता कुमार स्वामी को इन नतीजों से दिल्ली में तीसरे मोर्चे की सरकार बनने का संकेत मिल रहा हो।

पर, मुलायम सिंह को अपनी सरकार के कामकाज को इन नतीजों की कसौटी पर कसना होगा। इसलिए क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ वोट पाकर सत्ता में आई सपा सरकार जनता को साफ-स्वच्छ शासन देने का वादा पूरा नहीं कर पाई है।

सत्तारूढ़ दल के नेताओं की स्वेच्छाचारिता आए दिन अखबारों में प्रमाण सहित दिखती है। सरकार सिर्फ एक संप्रदाय को खुश करने वाले फैसले कर रही है।

यह राह सपा के लिए पूरे समाज का भरोसा हासिल करने वाली नहीं दिखती। इसलिए तीसरे मोर्चे की सरकार का सपना अगर साकार करना है तो मुलायम सिंह को अपने सरोकारों को इन नतीजों की कसौटी पर सच्चाई के साथ कसना होगा।

रतनमणि लाल कहते हैं कि नतीजे भाजपा की तरह मुलायम को भी उहापोह से निकलने की सलाह दे रहे हैं। सलाह यह है कि मुलायम सिंह अपने पुत्र की सरकार के लिए मास्साहब की भूमिका से तौबा कर ले।

नहीं तो लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी का हश्र भी भाजपा जैसा हो सकता है। इसलिए वह भाजपा नेतृत्व की तरह असमंजस में फंसने के बजाय गलती करने वालों को तुरंत दंड दें अन्यथा कांग्रेस की तरह मौन साध लें।

NCR Khabar News Desk

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