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काटजू मियां दीवाने, गधे गाते नहीं

देखिये काटजू साहब गधे गाते नहीं हैं। हालांकि गधों का गाना उनका संवैधानिक अधिकार है जिसे किसी भी अदालत में चैलेंज नहीं किया जा सकता। परंतु जिस तरह नई बहू से ससुराल में सर झुकाकर रहने की उम्मीद रखी जाती है उसी तरह गधों से भी चुप रहने की उम्मीद की जाती है। मैं किसी भी प्रकार से आपकी और गधों की तुलना नहीं कर रहा हूं। लेकिन गधा शब्द आजकल ’हाट’ है। काहे कि यूपी सरकार ने ‘ग’ से गणेश को संप्रदायिक मानते हुए उसके स्थान पर ‘ग’ से गधा पढ़ाने का आदेश दिया है। अब चूंकि ‘क’ से कमल ‘भ’ से भाजपा  का चुनाव चिन्ह है तो उसे तो संप्रदायिक मानने के पूरे कारण मौजूद हैं। अतः ‘क’ से काटजू भी पढ़ाया जा सकता है। बच्चों को समझना भी आसान होगा। क्योंकि आजकल आप सारे न्यूज़ चैनलों में, अखबारों में, फ़ेसबुक में हर मामले में अपनी राय देते पाए जाते हैं।
दूसरी ओर गधा शब्द इसलिए भी प्रासंगिक है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों से गधों की तरह संयमित व्यहवार की उम्मीद की जाती है। जिस तरह गधा अपने मालिक द्वारा दी गई जिम्मेदारी के अलावा दाएं-बाएं का काम नहीं कर सकता, वैसे ही संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्तियों से भी संविधानप्रदत्त जिम्मेदारी के अलावा किसी भी तरह की ऐक्टिविटी में शामिल न होने की उम्मीद की जाती है।  हालांकि, गधे और ऐसे व्यक्ति को ऑफ़ टाइम में अपने समय का सामाजिक उपयोग करने की इजाजत होती है। खैर आप जैसे फ़ाजिल आदमी के बारे में कुछ कहना अनुचित सा लग सकता है, पर माननीय काटजू जी दो कारणों से आपका व्यहवार मुझे खल रहा है।
पहला कि आप सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश हैं। यदि आपके कद का व्यक्ति ही सुप्रीम कोर्ट और उसके द्वारा बनाई गई एसआईटी की पड़ताल और निर्णय का सम्मान नहीं करेंगे। तो फ़िर आप जिस प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष हैं उसके अंतर्गत आनेवाले पत्रकार से किस तरह की उम्मीद रखी जा सकती है?  क्या आपका यह मानना है कि भारत में न्याय नहीं होता? और अगर भारत में न्याय नहीं होता है या न्याय होता प्रतीत नहीं होता तो आपको मोदी के बजाय न्याय व्यवस्था पर बात करनी चाहिए। अगर मोदी अपराधी होकर भी बेदाग निकलने में सफ़ल हो चुके हैं, तब मोदी नहीं यह न्याय व्यवस्था अपराधी है। आखिर किस तरह दो हजार लोगों का कातिल बच निकला।  फ़िर यदि कोई अपराधी निर्दोष छूट सकता है तो निर्दोष लोगों को भी सजा हुई होगी। इसके अलावा भी कई सवाल उठाए जा सकते हैं। मसलन आरोप यह है कि मोदी के निर्देश पर पुलिस मूक दर्शक बन गई।  जब निर्देश देने वाला कातिल है तो उसके इस असंवैधानिक निर्देश का पालन करने वाले उससे भी बड़े अपराधी हैं। क्या जाकिया जाफ़री समेत दुनिया तमाम के मानवाधिकारियों में से किसी न भी किसी भी दोषी अफ़सर के खिलाफ़ किसी भी अदालत में कोई याचिका लगाई है? और यदि नहीं लगाई तो 90 % मूर्ख भारतीयों की श्रेणी में कौन आता है मोदी या उनपर आरोप लगाने वाले लोग?
हालांकि आपके शेष दस पर्सेंट बुद्धिमानों की श्रेणी में होने के बारे में मुझे कोई संदेह नहीं है और इसका संवैधानिक आधार भी है कि सिर्फ़ विद्वान लोग ही भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश और उसके बाद प्रेस काउंसिल का अध्यक्ष लगाया जाता। वैसे प्रेस काउंसिल के चेयरमैन रहते हुए आपके दायरे में वह मीडिया है जो पिछले कई सालों से सतत मोदी के खिलाफ़ अभियान चलाए हुए है। अगर गुजरात के वनवासी इलाकों में विकास नहीं हुआ, आदिवासियों पर अत्याचार हो रहे हैं, जमीनें छीनी जा रही हैं,  सौराष्ट्र की सड़कें नाली आदि इत्यादी सब कंडम हैं तो क्यों नहीं मीडिया उसको कवर करता। वहां के स्थानीय भाजपा नेता को खड़ा कर क्यों नहीं जनता के सामने सवाल पूछ पोल खोलते। ठीक है कि मोदी को हराने में मीडिया असमर्थ है, पर उसके शासन की पोल खोलने से कम से कम सुधार का दबाव तो बना सकता है। आदिवासियों की समस्याएं दूर करवा सकता है। वैसे भी हजार साल की गुलामी में रहने वाले देश का कोई राज्य महज 15 सालों में अमरीका का कैलिफ़ोर्निया प्रांत बन जाए यह कमाल रजनीकांत के अलावा किसी के बस में नही।
खैर साहब नैतिकता का तकाजा था कि आप और मैं अपने से असंबधित मामलों पर लेख न लिखते। आपने लिखा दुनिया समझ गआ, मैंने लिखा है तो आशा करता हूं आप भी मेरी बात समझ जाएंगे।
आपका अपना
अरूणेश सी दवे ‘राम भरोसे’

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